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‘मुक्तिबोध’ का काव्य संसार और आलोचना के मापदण्ड

डॉ. दयानंद तिवारी
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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कार्लमार्क्स की साम्यवादी विचारधारा ही मार्क्सवादी विचारधारा कहलाई। वे एक वैज्ञानिक समाजवादी विचारक थे। वे यथार्थ पर आधारित समाजवादी विचारक के रूप में जाने जाते हैं। सामाजिक राजनीतिक दर्शन में मार्क्सवाद उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व द्वारा वर्गविहीन समाज की स्थापना के संकल्प की साम्यवादी विचारधारा है। मूलतः मार्क्सवाद उन आर्थिक राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतों का समुच्चय है जिन्हें उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स और व्लादिमीर लेनिन तथा साथी विचारकों ने समाजवाद के वैज्ञानिक आधार की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया। मुक्तिबोध इस विचारधारा के पोषक हैं।
वस्तुत:,किसी भी रचनाकार की जीवन दृष्टि उसके साहित्य संदर्भों को समझने-परखने का सर्वप्रमुख माध्यम है। यही जीवन दृष्टि साहित्यकार के न केवल सृजनात्मक लेखन का आधार होती है,बल्कि उसे सैद्धांतिक पीठिका देने वाले आलोचन-विवेचन का केन्द्र बिन्दु भी बनती है।
मुक्तिबोध की जीवन को देखने-परखने की दृष्टि मूलतः मार्क्सवादी है। उनका काव्य चिंतन,जीवन और समाज के प्रति देखने की दृष्टि मार्क्सवाद का ही परिणाम है। उनका कहना है-‘हमारा सामाजिक व्यक्तित्व ही हमारी आत्मा है। …हमारी आत्मा में जो कुछ है,वह समाज प्रदत्त है।’ यथार्थ जीवन-जगत ही मुक्तिबोध की समीक्षा दृष्टि का केन्द्र बिन्दु रहा है। मुक्तिबोध के लिए जीवन साहित्य का निकष है-‘जब साहित्य जीवन से प्रस्तुत होकर जीवन को प्रभावित करता है,तो वस्तुतः उसकी कसौटी जीवन ही है इसे मान लेना चाहिए।’
वस्तुत:,मुक्तिबोध का साहित्य मात्रा की दृष्टि से अधिक न होते हुए भी गुणात्मक रूप से साहित्य की स्वायत्तता की प्रतिष्ठा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। उसमें एक दृढ़ वैचारिक चिंतन की बहुमुखी सृजनात्मक प्रतिभा का ओज है। इनका समस्त काव्य सामाजिक अंतर्द्वंद के मानसिक संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति का आत्म सम्भव प्रयास है । अपने काव्य में मुक्तिबोध एक ओर समाज में परिव्याप्त भ्रष्टाचार के सामने झुकने की प्रवृत्ति से विद्रोह करते हैं,दूसरी ओर अपने भीतर के चेतन-अचेतन वृत्तों के संघर्ष से जूझते हैं। मुक्तिबोध के काव्य के मूल कथ्य को हम मध्यवर्गीय अंतर्द्वंद्व, पूंजीवादी समाज का यथार्थ,वर्गहीन समाज की परिकल्पना आदि बिंदुओं पर आधारित मान सकते हैं।
वर्गहीन समाज की परिकल्पना और जनचेतना की भावना मुक्तिबोध के काव्य का केन्द्रीय भाव है। वे स्वयं कहते हैं कि-‘जीवन ही साहित्य का निकष है, इसलिए कविता उनके लिए मस्तिष्क का आवेश न होकर जीवन के जटिलतम विचारों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है।’ जनसंघर्ष के विविध आयामों और आत्मीय छवि-चित्रों के चित्रण में ही उनकी वर्गहीन समाज के निर्माण की परिकल्पना व्यापक मानवीय मूल्यों से जुड़ते हुए सार्थक होती है। मुक्तिबोध के काव्य में यह परिकल्पना अभिधात्मक रूप में व्यक्त हुई है। ‘चाँद का मुंह टेढ़ा है’ कविता में वे एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते हुए लिखते हैं-
‘समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी सुंदर व शोषणमुक्त
कब होंगे ?’
उन्होंने वर्गहीन समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अन्याय और शोषण के विरूद्ध संघर्ष करने वाले मार्ग को अवरुद्ध करने वाली सुविधाजीवी प्रवृत्ति का उल्लेख ही नहीं,बल्कि घोर विरोध किया है।
उनके मन में पूंजीवादी समाज के प्रति रोष है इसलिए वे मानते हैं कि मार्क्सवादियों द्वारा वर्गहीन समाज की परिकल्पना के स्वप्न को साकार मूर्तरूप देने के उद्देश्य से रचे गए काव्य का कथ्य स्वभावतः पूंजीवादी समाज को गर्हित और निंदनीय चित्रित करता है । पूंजीवादी शोषक समाज के उत्पीड़न स्वरूप को पाठक के सामने उजागर करके ही उसके प्रति ग्लानि और घृणा का भाव जाग्रत किया जा सकता है। ‘तारसप्तक’ में ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’ उनकी निम्न पंक्तियाँ स्पष्टतः पूंजीवादी संस्कृति के दोगले स्वभाव के प्रति उनकी ग्लानि और घृणा से उपजी भर्त्सना को उजागर करती है-
‘छोड़ो हाय,केवल घृणा और दुर्गंध,
तेरी रेशमी वह शब्द संस्कृति अंध,
देती क्रोध मुझको,खूब जलता क्रोध,
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध,
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र,
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र,
तेरे हास में भी रोग कृमि है उग्र,
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध तुझ पर व्यग्र।’
मुक्तिबोध शोषक पूंजीपति समाज के दस्यु-रूप का वर्णन कर उसके प्रति घृणा और ग्लानि उपजाना चाहते हैं,ताकि उसके विरोध में सन्नद्ध होकर शोषित-पीड़ित व्यक्ति उसके नाश की कामना और उससे मुक्ति के लिए समूह-शक्ति को एकत्रित कर उसका विनाश की आधारशिला तैयार कर सके।
वे कहते हैं कि,-‘एक तरफ शान-शौकत से निर्मित खोखली और दोगली शहरी जिंदगी और दूसरी तरफ नगरीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले दैनिक मज़दूरी पर बदबूदार स्थानों पर जीवित रहने वाली विवश जिंदगी।’ दोगले स्वरुप का चित्रण करते हुए मुक्तिबोध सहज ही कह उठते हैं कि-
‘इस नगर का व्यक्तित्व जादुई की,
रंगीन मायाओं का प्रदीप्त पुंज,यह नगर है अयथार्थ,
मानवी आशा और निराशा के परे की चीज़’
(‘मुझे याद आते हैं‘)
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक कविता के प्रारम्भिक अंश में श्रमिक वर्ग के शोषण स्थान और उसके आस-पास के वातावरण का चित्र प्रस्तुत किया गया है। मुक्तिबोध मानते हैं कि,मार्क्सवादी चिंतन का मूलाधार वह सर्वहारा मज़दूर-वर्ग है जो समाज में आर्थिक वैषम्य के कारण शोषित एवं उत्पीड़ित है। आर्थिक समानता की प्राप्ति के माध्यम से वर्गहीन समाज-रचना का स्वप्न ही मार्क्सवाद का मुख्य लक्ष्य है। तभी तो वे कह उठते हैं कि-
‘नगर के बीचों-बीच
आधी रात-अँधेरे की काली स्याह,
शिलाओं से बनी हुई,
भीतों और अहातों के,काँच टुकड़े जमे हुए,
ऊंचे-ऊंचे कंधों पर,
चाँदनी की फैली हुई संतलायी झालरें।’
शोषित वर्ग की स्थिति के प्रति मुक्तिबोध की
मोहसिक्त सहानुभूति का चित्र सहज ही हमें आकर्षित करता है कि-
‘दूर-दूर मुफलिसी के टूटे-फूटे घरों में,
सुनहले चिराग जल उठते हैं,
आधी अँधेरी शाम,
ललाई में निलायी नहाकर,
पूरी झुक जाती है,
थूहर के झुरमुटों से लसी हुई ,
मेरी इस राह पर।’
(चाँद का मुँह टेढ़ा है)
प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में मुक्तिबोध ने अपनी अधिकांश कविताओं में वर्ग संघर्ष को चित्रित करने का प्रयास किया है। उनकी कविताओं में शोषित वर्ग की संघर्ष के प्रति सचेत सक्रियता और उससे भयाक्रांत शोषक वर्ग का विस्तृत चित्रण है। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ शीर्षक कविता अपने सम्पूर्ण कलेवर में ही वर्ग-संघर्ष की क्रांति चेतना से आपूरित है।
‘चंबल की घाटी में’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध ने शोषण व्यवस्था (दस्यु) के अत्याचार से मुक्ति के लिए ‘समूहीकरण’ पर बल दिया है।
मुक्तिबोध के काव्य में आर्थिक शोषण के चित्र ही आर्थिक परिस्थितियों एवं उनके कारणों की पड़ताल कराने के लिए विवश करते हैं। ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ के प्रारम्भ में ही श्रमिकों के शारीरिक एवं आर्थिक शोषण के लिए जिम्मेदार धूम्रमुखी कारखाने का चित्रण है। इसी कविता में ही कवि नगर सभ्यता में पनप रहे दो वर्गों के बीच की आर्थिक विषमता की खाई को भी स्पष्ट करते हुए कवि कहता है-
‘धुंधलके में खोये इस,
रास्ते पर आते-जाते दिखते हैं,
लठधारी बूढ़े से पटेल बाबा,
ऊँचे से किसान दादा,
वे दाढ़ीधारी मुसलमान चाचा और
बोझा उठाये हुए,
माँएं,बहनें,बेटियां।’
वस्तुत:,आर्थिक स्थितियों के वैषम्य को
उदघाटित करने में मुक्तिबोध की दृष्टि में अचेतन रूप से भारतीय संस्कृति और सभ्यता की मानसिकता का संचालन करती है।
पद्य के माध्यम से अपनी मूल्यवान बात करने वाले मुक्तिबोध ने अपने गद्य में भी स्पष्टतः प्रतिबद्धता को पक्षधरता का पर्याय मानकर स्वीकार किया है-‘हम एक प्रवृत्ति हैं,एक धारा है-भावधारा, विचारधारा,जीवनधारा-और हम उसी धारा के अंग हैं। और हम इस धारा के पक्षधर हैं और हम बिना इस पक्षधरता के अपने आपको अपूर्ण,मूल्यहीन और निरर्थक पाते हैं।’ मुक्तिबोध का काव्य मार्क्सवादी दर्शन का सृजनात्मक रूप होते हुए भी पाठक को नारेबाजी या मात्र प्रतिबद्धता की सिद्धांतबाजी में नहीं उलझाता। उनका सृजन स्वयं अपने कवितापन में इतना पूर्ण है कि उसमें मार्क्सवादी दर्शन के निष्कर्षों का समावेश होते हुए भी वह पाठक को बरबस कवि को प्रतिबद्धित चेतना के प्रति विश्वासी बना देता है। ‘प्रतिबद्धता’ की व्याख्या के सन्दर्भ में यहाँ ‘चाँद का मुँह टेड़ा है’ कविता संग्रह की पहली नाटकीय कविता ‘भूल गलती’ की कुछ पंक्तियों को देखा जा सकता है-
‘नामंजूर
उसको ज़िंदगी की शर्म की-सी शर्त,
हठ इंकार का सिर ताने,
-खुद मुख़्तार।’
‘भूल गलती’ गलत और बेईमान व्यवस्था की प्रतीक है-इस व्यवस्था में भी ईमानदारी बेख़ौफ़ होकर अपने सिद्धांतों के प्रति गहरी निष्ठा से प्रतिबद्धित है। वह ज़िंदगी जो ऐसी व्यवस्था के सामने विवश बेजुबान हो जाए,समझौतापरस्ती को दोहरा व्यक्तित्व अपनाकर अपने व्यक्तित्व के विवेक, उसकी स्वतंत्र चेतना को गलत व्यवस्था के प्रति समर्पित कर स्वयं मात्र कठपुतली बनकर रह जाए,ऐसा शर्मनाक जीवन कवि को स्वीकार नहीं करना चाहिए,तभी कवि की कवित्व शक्ति जिंदा बच सकेगी।
मुक्तिबोध आत्मान्वेषण और आत्मद्वंद के कवि हैं। वे मानते हैं कि जनवादी चेतना की प्राप्ति के लिए व्यक्ति की निजी चेतना का परिपक्व व परिपूर्ण होना अत्यावश्यक है। यह संशोधन या परिष्करण की प्रक्रिया काव्य में ३ स्तरों पर आती है-आत्मद्वंद, आत्मान्वेषण और आत्म परिचय। ‘ब्रह्मराक्षस‘ शीर्षक कविता भी व्यक्ति के स्तर पर आत्मसंघर्ष को प्रस्तुत करती है । ‘ब्रह्मराक्षस’ व्यक्ति की बौद्धिक चेतना के प्रातिभिक ओज का प्रतीक है। यह चेतना अपने ज्ञान की परिपूर्णता के गर्व से प्रतप्त है। ऐसे व्यक्तित्व का ‘आत्मसंघर्ष’ एक अँधेरी बावड़ी के वातावरण के रहस्य में समाहित है। आत्मचेतन तक पहुंचने के लिए मानसिक संघर्ष की प्रक्रिया का रहस्यात्मक चित्रण वे इस प्रकार करते हैं कि-
‘खूब ऊँचा एक जीना सांवला,
उसकी अँधेरी सीढ़ियां,
वे एक आभ्यंतर निराले लोक की,
एक चढ़ना औ‘ उतरना,
पुनः चढ़ना औ लुढ़कना,
मोच पैरों में,
व छाती पर अनेकों घाव।’
मुक्तिबोध की कविता में व्यक्ति के अस्तित्व संघर्ष के विविध आयाम हैं,जिनमें कवि मूल्यवादी पुरातन आदर्शों और आत्म-निर्वासन की त्रासजनक भूमिकाओं में स्वयं को तलाश रहा है। मुक्तिबोध की कविताएं समाज को बुराइयों की ओर घसीटने वाली,उसे खोखला बनाने वाली दुर्दांत शक्तियों को खींच कर सामने ले जाती हैं,उनके राजनीति में चल रहे षडयंत्रों का पर्दाफाश करती हैं। मुक्तिबोध ने देश के उस वर्ग को अभिव्यक्ति दी है,जिसे शायद ही कोई अन्य कवि इसे अपनी इतनी अधिक सफलता से,ईमानदारी से अभिव्यक्त कर सका हो।
समकालीन हिंदी साहित्य में मुक्तिबोध का सशक्त, ईमानदार और संघर्षशील व्यक्तित्व अपने सृजनात्मक वैशिष्ट्य के कारण हमेशा याद किया जाता रहेगा।

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