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मेरे कान्हा

संजय गुप्ता  ‘देवेश’ 
उदयपुर(राजस्थान)

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जन्माष्टमी विशेष……

कन्हैया बाजे,जो तेरी बासुंरिया,
सुध-बुध खो बैठी,मैं बावरिया
नाचूँ मैं और नचाए तू कान्हा,
मैं तो तेरी हो गयी हूँ साँवरिया।

जमुना-सी लहरें उठें हैं,मन में,
भूली बिसूरी भटकूं हूँ,वन में
मत तरसा,दरश दिखा मोहन,
यूँ तो बसा है तू कण-कण में।

ना भाये मुझे मोर की कुहू-कुहू,
पपीहा की ना भाये पीहू-पीहू
कानों में बजती है बाँसुरी तेरी,
अंखियन में बसता है तू ही तू।

हांडी भर के रखी है माखन की,
सून लो अरज मुझ अभागन की
आजा श्याम,चुरा के सब खाजा,
मेरी तो आस है तेरे दरशन की।

वृंदावन हो जाता कुंज कलवरित,
पत्ता-पत्ता गाता है,मधुर गीत
सब कुछ कान्हा तू चुरा ले गया,
काहे सताये लगा कर अब प्रीत।

सुन ले अरज तू,ऐ मेरे गोविन्द,
कटे नहीं जीवन तुझे देखे बिन
मैं तो जोगन बस यही कहती हूँ,
तुझे निहारुँ हर पल हर दिन।

तू अनोखा,तेरी लीलाएं अनोखी,
धन्य हुआ वो जिसने यह देखी।
मैं गोपी बस तुझ पर वारी जाऊं,
पार लगा दे नैया इस जीवन की॥

परिचय–संजय गुप्ता साहित्यिक दुनिया में उपनाम ‘देवेश’ से जाने जाते हैं। जन्म तारीख ३० जनवरी १९६३ और जन्म स्थान-उदयपुर(राजस्थान)है। वर्तमान में उदयपुर में ही स्थाई निवास है। अभियांत्रिकी में स्नातक श्री गुप्ता का कार्यक्षेत्र ताँबा संस्थान रहा (सेवानिवृत्त)है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप समाज के कार्यों में हिस्सा लेने के साथ ही गैर शासकीय संगठन से भी जुड़े हैं। लेखन विधा-कविता,मुक्तक एवं कहानी है। देवेश की रचनाओं का प्रकाशन संस्थान की पत्रिका में हुआ है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-जिंदगी के ५५ सालों के अनुभवों को लेखन के माध्यम से हिंदी भाषा में बौद्धिक लोगों हेतु प्रस्तुत करना है। आपके लिए प्रेरणा पुंज-तुलसीदास,कालिदास,प्रेमचंद और गुलजार हैं। समसामयिक विषयों पर कविता से विश्लेषण में आपकी  विशेषज्ञता है। ऐसे ही भाषा ज्ञानहिंदी तथा आंगल का है। इनकी रुचि-पठन एवं लेखन में है।

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