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न मस्ती-न झूला, बस भाग-दौड़…

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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तीज पर्व के २ नाम प्रचलित हैं-आसमान में उमड़ती-घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को ‘कजली (कज्जली) तीज’ और सावन की हरीतिमा के कारण ‘हरियाली तीज’ के नाम से पुकारते हैं। इस तीज पर्व पर ३ बातों के तजने (छोड़ने) का भी विधान भी पुस्तकों में मिलता है–छल कपट,
झूठ दुर्व्यवहार और पर निंदा।
कहा जाता है कि इसी दिन गौरा जी विरहाग्नि में तप कर भगवान भोलेनाथ से मिली थीं। इस त्यौहार पर सुहागिन स्त्रियाँ श्रृंगार करके गौरी पूजन करती हैं। मेंहदी, झूला, एवं मेले का आयोजन विशेष रूप से होता है। यह पर्व मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के बनारस, मिर्जापुर में मनाया जाता है। कजरी (विरह गीत) की स्पर्धा भी होती थी। यह वर्षा ऋतु का विशेष राग है। ब्रज के मल्हारों की भांति यह प्रमुख वर्षा गीत पपीहा, बादलों तथा पुरवा हवाओं के झोंकों में बहुत प्रिय लगता है।
हरियाली तीज पर झूला झूलने का रिवाज पुराने समय से चला आ रहा है। ऐसी मान्यता है कि झूला झूलने की परम्परा द्वापर युग से शुरू हुई थी। झूले को फूलों और लताओं से सुसज्जित करके उस पर लड़कियाँ और सुहागिन स्त्रियाँ ऊँची-ऊँची पेंग मार कर कजरी और सावन के गीत गाती हैं।
हरियाली तीज ऐसा त्यौहार है, जो प्रकृति की सुंदरता और भगवान् शिव व देवी पार्वती के मिलन का प्रतीक है। यह विवाहित महिलाओं के लिए अपने पति के प्रति प्यार दर्शाने और ईश्वर से आशीर्वाद पाने का सबसे अच्छा समय होता है।
तीज पर्व की स्मृतियों के साथ मायका जुड़ा हुआ है। बचपन की स्मृति सबके मन पर अमिट छाप रखती है। आप जीवन के किसी भी दौर में हों, मायके का नाम सुनते ही हर स्त्री के चेहरे पर अनूठी मुस्कान आना स्वाभाविक है। तीज पर्व पर उसी मायके की याद करते हुए लगता है, कि कल की ही तो बात है… जब मैं ८-९ साल की थी, और नई फ्राक पहन कर यहाँ-वहाँ कुलांचे भरती-फिरती थी…। पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे… ताई, चाची, बुआ आदि से भरा हुआ घर…। दादी की तो सबसे दुलारी लाड़ली और प्यारी पोती जो थी। घर में पहली पोती थी, इसलिए मेरा रूतबा ही कुछ और था। दादी का लाड़ और स्नेह ऐसा, कि सभी भाई- बहनों को लगता कि वह उसे ही सबसे ज्यादा चाहती हैं। चूंकि, घर में बहुत से लोग थे और त्यौहार उन दिनों बहुत उत्साह उमंग एवं धूमधाम से मनाए जाते थे, तो विशेष पर्व हरियाली तीज की स्मृतियाँ आज भी ताजी हैं। सब कुछ सजीव हो उठता है… कई दिन पहले से मिठाई, पकवान घर पर बनने शुरू हो जाते थे, क्योंकि त्योहार की मिठाई बुआ-मौसी आदि के घरों में भेजी जानी होती थी और हाँ, नानी के यहाँ से भी तो मिठाई आती थी। तब बाजार की मिठाई के डब्बों का इतना चलन नहीं था। माँ, ताई, चाची आदि सभी प्रसन्नता पूर्वक कई दिन पहले से ही तैयारियों में लग जाती थीं… साथ में सावन के गीत भी गुनगनाती रहती थीं। सबके लिए बाजार से नई साड़ियाँ आतीं… साड़ी वाले भइया अपना गट्ठर लेकर आते और घर में ही पसंद करके ले ली जातीं…। चूड़िहार आता और सबके हाथों में नई-नई चूड़ियाँ पहनाता। लाल-हरी-पीली चूड़ियाँ देख हम बच्चे भी बहुत खुश होते… यह भी लेना है, वह भी लेना है, लेकिन नहीं… सावन है इसलिए हरी-हरी चूड़ियाँ ही पहननी होतीं थी। फिर आती थी मेंहदी की बारी… नावन आकर मेंहदी की हरी- हरी पत्तियों को पीसती थी, सारा घर मेंहदी की महक से गमक उठता था।हम सबके लिए मेंहदी लगाना अनिवार्य होता था। सभी बच्चे तख्त पर लिटा दिए जाते और हाथ-पैर में मेंहदी लगा दी जाती थी। और मेंहदी लगते ही भूख लगना स्वाभाविक था, फिर दादी का मनुहार करके एक-एक कौर मुँह में प्यार से खिलाना…।
लाल-लाल रचे हुए हाथ-पैरों को बार-बार निहारना और फिर सबको दिखा कर कहना कि “मेरी मेंहदी सबसे ज्यादा लाल है” यह स्मृतियाँ भला कभी भूली जा सकती हैं…। तीज की सुबह ताई, माँ और चाची- बुआ सज-धज कर गौरी की पूजा करतीं। सभी एकसाथ बैठकर बायना मनसतीं। नई साड़ी, जेवर और चूड़ियों से भरे मेंहदी वाले हाथ आज भी आँखों के सामने तैर उठते हैं।
घर के पीछे नीम के पेड़ पर झूला डलता… दोपहर में सब मिलकर झूला झूलते। बुआ अपनी सहेलियों के साथ ऊँची-ऊँची पेंग लेकर झूला करती, हम बच्चों को छोटे झूले से ही संतोष करना पड़ता। मधुर स्वर लहरी में कजली, हिण्डोला गीत और झूला गीत गाया करतीं थीं। तब नन्हीं-नन्हीं बूँदों की फुहारों के बीच झूले पर बैठ कर पेंग मार कर झूला झूलना सावन का असली आनंद था। आज भी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं… झूला झूल, झूला झूल, भइया माथे फूल, भाभी माथे सिंदूर, भइया भइया तुम भाग आओ, भाभी को भीजन देव…।
शादी के समय लड़की के लिए ससुराल से सिंधारा आने का रिवाज आज भी बहुत जगह है। सावन के महीने में मिर्जापुर, प्रयागराज में लड़की का फूलों से श्रृंगार करवाने का उस समय बहुत रिवाज होता था, वह दृश्य आज भी सजीव हो उठता है, जब बुआ के ससुराल से सिंधारा आया। बुआ को एक चौकी पर बैठाया गया, उनका फूलों से श्रंगार किया गया। बेले की कलियों को पिरोकर बीच-बीच में गुलाब आदि लगा कर बहुत ही सुंदर माथापट्टी, वेणी, जूड़ा, गजरा, हार, हथफूल सब कुछ कलियों से ही बनाया जाता था…। ऐसे ही लड़की या ब्याहली बहू के भी फूलों के श्रृंगार का प्रचलन था। आज भी बुआ जी का वह अप्सरा जैसा सुंदर रूप आँखों के सामने सजीव हो उठता है।
शाम को तीज का मेला देखने भी जाया करते थे। मेले में सभी महिलाएं सज-धज कर जाया करतीं थीं। वहाँ झूला झूलने के लिए हम बच्चे बहुत लालायित रहते थे। वहाँ से लकड़ी के खिलौने और अपनी गुड़िया के लिए पालकी खरीदना नहीं भूलते थे। हम सभी बच्चे इन त्यौहारों या अवसरों का पूरा आनंद लिया करते थे। उन दिनों गुब्बारा लेकर ही हम सब खुश हो जाते थे।
हम सब उन पुरानी परम्पराओं और त्यौहारों से अपने को जुड़ा हुआ महसूस करते थे। आज कम्प्यूटर युग में हम सबके पास इन पुरानी परम्पराओं और रिवाजों के प्रति न ही रुचि है, न ही समय…। बच्चों को ही दोष क्यों दें… हम महिलाएं भी तो केवल त्यौहारों पर ही मात्र लकीर पीट कर काम पूरा समझ लेती हैं। अब त्यौहारों के लिए न ही उमंग है, न ही उल्लास, जो कुछ भी है, वह अभी छोटे शहरों में चल रहा है…। महानगरों की व्यस्त ज़िंदगी में सब कुछ प्रायः लुप्त हो रहा है…। सभा, सोसायटी और क्लबों में तीज मिलन करके लकीर पीटी जा रही है…-
न रह गई अमराई, न ही नीम की डाल,
न मस्ती न झूला, रह गई तो… बस भाग-दौड़…।