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अष्टम अनुसूची के बहाने फिर हिंदी पर वार…

राजनीति:प्रतिक्रिया….

बुद्धिनाथ मिश्र(उत्तराखण्ड)-

राजभाषा हिंदी का घर बांटने के लिए जो छोटे दिमाग के लोगों का कई सालों से प्रयास हो रहा है,उसका डटकर मुकाबला जो गिने-चुने लोग कर रहे हैं उनमें डॉ. अमरनाथ प्रथम पंक्ति में हैं। मैंने हमेशा उनका समर्थन किया है और आगे भी करता रहूंगा। कल अमेरिका से एक ऑनलाइन संगोष्ठी प्रसारित हुई थी जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ इस कुत्सित प्रयास की भी चर्चा हुई और डटकर मुकाबला करने का संकल्प लिया गया। उसमें विभिन्न देशों के १०८ साहित्यकार विद्वान उपस्थित थे। सबने एक स्वर से यह कहा कि हिंदी की बोलियों को उसके विरुद्ध खड़ा कर जो अंग्रेजी लोगों का षड्यंत्र चल रहा है,उसको नाकाम करना होगा और जनता में इस बात को लाना होगा कि हिंदी कमजोर हुई तो कोई भी बोली सुरक्षित नहीं रहेगी।

राधा गोयल(दिल्ली)-

आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ। वाकई हमारी बोलियों में लिखा जाने वाला उत्कृष्ट साहित्य पाठ्यक्रम रखे जाने की माँग स्वागत योग्य है। बांटने की मांग यदि कुछ लोग अपने स्वार्थवश अन्य बोलियों को इस तरह शामिल करने की माँग करते रहे तो हिंदी का वर्चस्व खत्म हो जाएगा।अंग्रेजी का ही बोलबाला रहेगा।  

निर्मल कुमार पाटौदी(मप्र)-

 जाने-अनजाने में हिंदी भाषा-भाषी क्षेत्र की बोलियों से जुड़े कुछ लोग बोलियों को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की माँग करते रहते हैं। उन तक यह जानकारी पहुँचना अत्यंत आवश्यक है कि उनकी बोलियों को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने से लाभ नाममात्र का होगा। उनके मन-मस्तिष्क में यह तथ्य पहुँचना चाहिए कि उनकी बोलियों का संबंध उनके राज्य तक सीमित है। बोलियों का विकास उनके राज्य की सरकार भली- भाँति करने में सक्षम है। बोलियों के साहित्यकारों और साहित्य को पुरस्कृत करने,सम्मानित करने में राज्य सरकार समर्थ है। राज्यों की बोलियाँ लंबे समय से उनके महान साहित्यकारों के दम पर फ़ली-फूली,विकसित हुई है। उनके महत्व को बिल्कुल भी नकारा नहीं जा सकता है।बोलियों के क्षेत्र के कतिपय राजनीतिज्ञ अपने चुनावी क्षुद्र स्वार्थ के वशीभूत होकर आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की माँग कुएं के मेंढक की तरह करते रहते हैं। जैसे अभी बिहार में चुनाव होने जा रहे हैं,और मतदाताओं को बोली के नाम पर भ्रमित करने के अवसर को भुनाने से नहीं चूक रहे हैं। ऐसी तुच्छ मानसिकता को अधिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। यह विचार आम लोगों तक पहुँचाया जाना आवश्यक है कि जहां-जहां बोलियाँ हैं,वहाँ-वहाँ उनकी अपनी हिंदी भाषा भी है,जो सभी बोलियों के बोलने वालों को परस्पर जोड़ती है। हिंदी भाषा का आधार सभी हिंदी भाषी राज्य हैं। अत: बोलियों के कारण हिंदी भाषा को तिल मात्र भी नुक़सान नहीं पहुँचना चाहिए। यह हितकारी तथ्य सभी बोलियों के साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों को समझना ही होगा। हिंदी रहेगी,तो बोलियों को फलने-फूलने का पूरा अवसर मिलेगा। बोलियों के कारण हिंदी को नुक़सान होगा,तो बोलियों का अस्तित्व भी समाप्त होते देर नहीं लगेगी। हिंदी भाषा और बोलियों का हित इसी में है कि जब भी मतगणना हो,हर बोली वाले को चाहिए कि वह अपनी पहली भाषा हिंदी को प्राथमिकता दें। ऐसा करने से हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी संख्या वाली भाषा हो सकेगी। वर्तमान में हिंदी भाषा से कम संख्या वाले राष्ट्रों की भाषाओं को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त है। हमारे देश की भाषा हिंदी को सभी बोलियों वाले संयुक्त प्रयास करके राष्ट्र संघ की मान्यता दिलाने का संकल्प पूरा कर सकते हैं। ऐसा महती क़दम बोलियों और हिंदी दोनों के स्थायी हित में है। अन्यथा हिंदी और बोलियों,दोनों को अंग्रेज़ी भाषा के स्वार्थी पक्षधर ख़त्म करने में बिलकुल नहीं चूकेंगे।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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