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पं. उपाध्याय का भाषा चिंतन

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
दिल्ली

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पं. दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति में एक जाना-माना नाम है। उन्होंने अपना प्रारंभिक जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता के रूप में शुरू किया था। बाद में संघ के संगठनकर्ता के रूप में काम करने लगे। १९५० में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर एक राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ की स्थापना की और उसके संगठन मंत्री बन गए। कई वर्षों तक वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री और अध्यक्ष भी रहे। अध्यक्ष के रूप में जब वे देश की यात्रा कर रहे थे,तो फरवरी १९६८ में मुगल सराय स्टेशन के पास मृत पाए गए। मृत्यु का रहस्य अभी तक रहस्य बना हुआ है। बाद में जनसंघ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नाम से प्रसिद्ध हुई।

उपाध्याय जी एक राजनेता ही नहीं,महान चिंतक,विचारक और संगठनकर्ता थे। यह कहना असमीचीन न होगा कि वे राजनेता कम और मनीषी अधिक थे। वे पूर्णतया भारतीयता और भारतीय संस्कृति के उपासक थे। उनकी विचारधारा में भारत,भारतीयता और भारतीय संस्कृति अंतर्निहित थे। वे लेखक,पत्रकार सभी कुछ थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की अवधारणा प्रस्तुत की। आर्थिक रचनाकार के रूप में उनका मत था कि सामान्य मानव अर्थात जन-सामान्य का सुख और समृद्धि ही आर्थिक विकास के मुख्य उद्देश्य होने चाहिए।

उपाध्याय जी ने कई पुस्तकें भी लिखी हैं,किंतु विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में,विभिन्न भाषणों में,सम्मेलनों और साक्षात्कारों में कई विषयों पर चाहे छिट-पुट में उनकी चर्चा मिलती है। उन्होंने भाषा संबंधी विषय पर बहुत कम लिखा और कहा है,किंतु वह युगानुकूल,सार्थक और बलपूर्वक अवश्य कहा है। स्वतंत्रता के बाद पाँचवें और छठे दशक में भारत विकास की ओर बढ़ रहा था,लेकिन उसे कई कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। उनमें एक समस्या भाषा नीति और शिक्षा नीति की भी थी। उसी के परिप्रेक्ष्य में पं.उपाध्याय के विचार बहुत ही गंभीर,चिंतनपरक,सुघड़ और लोकोपयोगी थे। उन्होंने बहुभाषी भारत की भाषायी स्थिति को समझते हुए हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेज़ी आदि कई भाषाओं पर अपने विचार प्रस्तुत किए थे,जो आज भी सार्थक हैं।

दीनदयाल जी हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक थे और अंग्रेज़ी के पक्ष में कतई नहीं थे। सन् १९६१ में राष्ट्रीय एकता सम्मेलन में भारतीय संस्कृति के पुरोधा और राजनेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अंग्रेज़ी को भारतीय राष्ट्रीय चेतना का प्रेरणास्रोत और उपकरण माना था। उपाध्याय जी ने अपने एक साक्षात्कार में उनके इस मत का ज़ोरदार शब्दों में खंडन करते हुए कहा था कि,अंग्रेज़ी को भारत की राष्ट्रीय चेतना का प्रेरणास्रोत और उपकरण मानना हमारी राष्ट्रीयता के सच्चे और सकारात्मक दर्शन की उपेक्षा करना है। उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि मैकाले की भविष्यवाणी सही निकल रही है कि भारत के अंग्रेज़ीदाँ लोग नाम के ही भारतीय हैं। ये लोग न तो भारत की आत्मा को पहचान पाएँगे और न ही सकारात्मक आदर्शों को पाने के लिए जन-समाज को प्रेरित कर पाएँगे(‘ऑर्गेनाइज़र’-२३ अक्तूबर १९६१)। एक साक्षात्कार में भी(१९६५) उपाध्याय जी ने अंग्रेज़ी को भारतीय एकता का प्रतीक कभी नहीं माना। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एकता जनता की इच्छा-शक्ति पर आधारित होती है। अगर जनता मिलजुल कर एक-साथ रहें,अपने राष्ट्र के प्रति उसकी आस्था और दृढ़ संकल्प हो तो जनता की संकल्प-शक्ति को ध्यान में रखते हुए सरकार को भी हर हालत में एकता को बनाए रखना है। ब्रिटिश शासन में भारत की एकता को अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषा के योगदान को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन में यह एकता केवल कृत्रिम और नकारात्मक थी। सकारात्मक और रचनात्मक एकता केवल हमारी अपनी भाषाओं से ही संभव हो सकती है।

उपाध्याय जी ने अपने एक वक्तव्य में अंग्रेज़ी का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था कि,अंग्रेज़ी की लड़ाई केवल हिन्दी के लिए नहीं है,बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के हित के लिए भी है। अंग्रेज़ी को हटाने से केवल हिन्दी का भला नहीं होगा,बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं का भी हित होगा। उनकी यह भी मान्यता थी कि तमिल,बंगला तथा अन्य भारतीय भाषाओं को हिन्दी ने पीछे नहीं किया,बल्कि अंग्रेज़ी ने ही किया है। उनका यह भी मत है कि,अंग्रेज़ी की नकल से विश्व का ज्ञान तो प्राप्त नहीं होगा,वरन् अपनी भाषाओं से अपना अमूल्य ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर पाएँगे।

हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा मानते हुए वे कहते हैं कि,भारत संघ की राजभाषा की भूमिका निभाने में हिन्दी पूर्णतया समर्थ है और क्षेत्रीय भाषाएँ अपने-अपने प्रदेश की राजभाषा का काम कर सकती हैं। इससे देश को एक प्रकार का द्विभाषी होना होगा। संघ सरकार के जो कार्यालय राज्यों में स्थित हैं,उन्हें हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा दोनों का प्रयोग करना होगा। इसी संदर्भ में राष्ट्रभाषा को परिभाषित करना यहाँ असमीचीन न होगा कि राष्ट्रभाषा का संबंध राष्ट्रीयता से होता है,क्योंकि राष्ट्रीयता जातिय गौरव और राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी होती है। राष्ट्रीय चेतना का संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से होता है। इसका संबंध ‘भूत’ और ‘वर्तमान’ के साथ होता है तथा महान् परम्परा के साथ जुड़ी होती है। राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की भाषा की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करती है। यह भाषा जनता की निजी,सहज और विश्वासमयी भाषा बन जाती है जिसका प्रयोग राष्ट्रपरक कार्यों में चलता रहता है। इसलिए इस बात में कोई दो राय नहीं कि संस्कृत राष्ट्रभाषा का पद गौरवान्वित करने में पूरी तरह सक्षम और समर्थ है,लेकिन आज के संदर्भ में उपाध्याय जी के इस मत से सहमत होने में कठिनाई यह है कि,आज संस्कृत में अन्य भाषाओं की अपेक्षा जीवंतता कम हो गई है।

हिन्दी के विरोध में कुछ लोग और समुदाय विरोध कर रहे थे,इस बारे में उन्होंने बताया (‘ऑर्गेनाइज़र’-गणतंत्र विशेषांक-१९६५) कि,यह एक प्रकार का ‘पुनरावृत्त घृणा’ फैलाने का भाव है। अगर ऐसे लोग विरोध करते हैं तो ऐसे लोगों को समझाना और आश्वस्त करना कठिन हो जाता है। ऐसे लोगों को उन्होंने दो वर्गों में विभाजित किया। पहले वर्ग के लोग एक राष्ट्र,एक संस्कृति और एक भाषा की अवधारणा के विरोधी होते हैं। इसलिए उनका प्रश्न हमेशा यही रहता है कि हिन्दी ही अकेले क्यों। वस्तुत: वे भारत का एक और विभाजन चाहते हैं और इसलिए वे हिन्दी को भारतीयों पर साम्राज्यवादी शासन का उपकरण मानते हैं। यह उनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा है। आप उन्हें तब तक आश्वस्त नहीं कर सकते जब तक उन्हें अलगाववादी महत्त्वाकांक्षा के व्यर्थ और दुर्बल पक्षों के बारे में आश्वस्त नहीं कर लेते। इसलिए हमें इस बारे में संकल्प लेना होगा और प्रयास करना होगा,ताकि वे सही दिशा की ओर उन्मुख हो सकें। अत: उनके साथ संघर्ष करना पड़ेगा और उनके इरादों को कुचलना होगा। पंडित जी ने विरोध करने वाले दूसरे वर्ग की बात करते हुए कहा कि ये लोग पूर्णतया राष्ट्रवादी हैं। वे संस्कृत भाषा के लिए वकालत करते हैं। उनका यह मत सही भी हो सकता है,लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं कि हिन्दी का विरोध करने और उसके प्रयोग में बाधा डालने से संस्कृत का भला नहीं होगा। यदि अंग्रेज़ी को जारी रखा गया तो संस्कृत बहुत पीछे रह जाएगी।

राष्ट्र का निर्माण जनता ही करती है। इसलिए वही भाषा अपनाई जाए जो सरकार में निर्णायक भूमिका निभा सके और वह हो सकती है जनता की ही भाषा। उनका यह मत है कि भाषा शून्यता में नहीं पनपती। सरकारी फाइलों में विकसित नहीं होती। हमें अपनी भाषा का प्रयोग स्वयं करना होगा। सरकार का अनुकरण जनता नहीं करती,सरकार को जनता का अनुकरण करना होगा। यदि सरकार ऐसा करने से इन्कार करती है तो वह अपनी जड़ें खो देती है। अगर भाषा के मामले में सरकार की चलती तो बहुत पहले ही फ़ारसी देश की भाषा होती। मुस्लिम शासकों का संदर्भ देते हुए वे कहते हैं कि दिल्ली के मुस्लिम शासकों ने शताब्दियों तक अपना राजकाज फ़ारसी भाषा में किया,लेकिन जनता अपनी भाषाओं में ही अपना काम करती रही। अंत में मुग़ल शासकों को जनता की भाषा खड़ी बोली को अपनाना पड़ा। उर्दू की साहित्यिक महत्ता का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं कि साहित्य में उर्दू का विशेष योगदान होने के बावजूद यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण की माध्यम भाषा नहीं बन पाई। जनभाषा हिन्दी ही राष्ट्रीय पुनर्जागरण का नैसर्गिक चुनाव थी। यह हमारे स्वतंत्रता-संग्राम की भाषा बन गई है,प्रतीक बन गई और साथ ही स्वतंत्रता-सेनानियों के रचनात्मक कार्यक्रमों की अभिव्यक्ति बन गई।

उपाध्याय जी ब्रिटिश साम्राज्य पूर्व के इतिहास पर अपनी दृष्टि डालते हुए कहते हैं कि,हिन्दी न केवल ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हो रहे संघर्ष तक ही सीमित थी,बल्कि उससे पहले मुग़ल शासकों के विरुद्ध भी अपनी भूमिका निभा रही थी। शिवाजी के दरबार में भूषण जैसे कवियों ने हिन्दी में वीर रस की कविताओं से इसमें योगदान किया। स्वतंत्रता के बाद हमारी जो लोकतांत्रिक सरकार स्थापित हुई,उसे पंडित जी जनता की सरकार मानते हैं। अगर जनता अपनी भाषा की उपेक्षा करती है,तो कोई भी सरकार उस भाषा की न तो रक्षा कर पाएगी और न ही उसे प्रोत्साहन देगी। इस बात की ओर भी वे ध्यान दिलाते हैं कि,जिस भाषा का विकास सरकार के संरक्षण में होता है,वह भाषा जनता की भाषा का गौरव खो बैठती है। हिन्दी साहित्य के रीति काल में उनकी यह मान्यता संपुष्ट हो जाती है,जिस काल में ब्रज भाषा सामंतों और राजाओं के संरक्षण में ही विकसित हुई थी और उसके साहित्य में जन भावना दिखाई नहीं देती।

विद्यालयों में त्रिभाषा सूत्र में अंग्रेज़ी भाषा को सम्मिलित करने में उपाध्याय जी सहमत नहीं थे। त्रिभाषा सूत्र लागू करने पर उनका मत है कि इस त्रिभाषा सूत्र में अगर हिन्दी,अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा लागू होगा तो उससे संस्कृत को बाहर कर दिया जाएगा,जो क्षेत्रीय भाषाओं के लिए भी हानिकारक होगा। यदि हिन्दी को लिया जाता है तो अंग्रेज़ी का वर्चस्व नहीं हो पाएगा और उसका स्तर भी ऊँचा नहीं हो पाएगा। तत्कालीन सरकार की ढीली-ढाली और विवादास्पद भाषा-नीति से पता चलता है कि सरकार का हिन्दी के प्रति उदासीन रवैया स्पष्ट झलकता है और इसी कारण हिन्दी को बहुत नुकसान पहुँचा है। इसलिए हिन्दी को अब सक्रियता की भाषा बनाना है और विदेशी भाषा अंग्रेज़ी को बनाए रखने की सरकार की जो नीति है,वह एक षड्यंत्र है जिसका विरोध जनता को लोकतांत्रिक तरीके से करना होगा।

इस प्रकार उपाध्याय जी के भाषा संबंधी विचार गंभीर,सुलझे हुए और विद्वतापूर्ण हैं। भारतीय संस्कृति और परम्परा की दृष्टि से भारत की प्रगति हो सकती है और वह भी केवल अपनी भाषाओं में हो सकती है। वे हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक रहे हैं। वे अपनी भाषाओं के विकास और संवर्धन में ही राष्ट्र का विकास और संवर्धन मानते थे। उनकी यही आकांक्षा थी कि हिन्दी और भारतीय भाषाएँ हमारी राष्ट्रीय अस्मिता,राष्ट्रीय एकता,राष्ट्रीय संघर्ष और राष्ट्रीय उपलब्धि की प्रतीक बनी रहें।

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