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कुछ गुड़ ढीला,कुछ बनिया

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
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गणतंत्र दिवस स्पर्धा विशेष……….

हमारे देश के सामान्य नागरिक गणतन्त्र शब्द का अर्थ तक नहीं जानते,कुछ इसकी अहमियत भी नहीं समझते,तो आखिर एक नागरिक होने के नाते हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए ?? मुझसे या आपसे जब कोई पूछता है तो भोली-भाली जनता कह देती है या उसके मन में यही विचार उठते हैं कि मेरे पास तो देने या कहने को कुछ भी तो नहीं है। हम अपनी क्षमताओं को सही दिशा नहीं दे पाए,आकलन ही नहीं कर पाए,फिर किस गणतन्त्र राज्य में हैं ??
स्वतन्त्रता के पश्‍चात भारतीय गणतन्त्र के लिए हमने अपना जो लक्ष्य निर्धारित किया था,उससे हम भटक चुके हैं!! कई मूलभूत जरूरतें देश की आजादी के बाद आज प्राप्त कर पाए हैं,और कुछ अब भी नहीं। राष्ट्रीय समस्या के रुप में गरीबी, भुखमरी,बेकारी,भ्रष्टाचार,कत्लेआम,आतंकवाद,उग्रवाद व युद्ध की समस्याओं से उबर नहीं पाए हैं, जबकि हमारा देश हमारी सांस्कृतिक विरासत, अनेकता में एकता,वेशभूषा,धर्म, भाषा,साहित्य कला और शिल्प,नृत्य व संगीत की विविधता,ज्ञान-विज्ञान,राजनीति और प्रशासन इन सबको अपने में समेटे रहा है। मन उद्वेलित होता है,खुश होता है,हम गौरवान्वित होते हैं,लेकिन त्यौहार बीतने के साथ ही हम घिसी-पिटी अव्यवस्थित सामाजिक व्यवस्था के साथ पूर्व की ही भाँति अनुकूलन की स्थिति में आ जाते हैं। हमारा जोश,कुछ कर गुजरने का भाव समाज में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं ला पाता।
‘वंदे मातरम्’ की धुन पर आजाद हुआ हमारा देश गणतन्त्र दिवस मनाता जा रहा है। प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि,वह देश की अखण्डता और एकता के लिए कार्य करें तथा सम्मान की रक्षा के लिए संकल्प लें।
देशभक्ति के गीतों को बजा देना,गुनगुना लेना, राष्ट्रगान,वन्दे मातरम् व कुछ नारे बोल देने से हमारा राष्ट्र के प्रति फर्ज पूरा नहीं होता। आज हम इसे ही अपना कर्त्तव्य मान बैठे हैं। इतने वर्षों से हम सब लेते जा रहे हैं, पर अपना कर्त्तव्य और अपनी जिम्मेदारी नहीं जान पाए हैं,क्योंकि हमारे देश के प्रति कुछ कर्तव्य भी होते हैं। पढ़े लिखे विद्वानों एवं कुछ अपवादों को छोड़कर कहना चाहूँगी कि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर एक नागरिक की दृष्टि से उसको देखिए कि वह इन चीजों का प्रयोग किस मानसिकता के साथ करता है ?? विचारणीय है। चाहे वह भारतीय रेल हो,सरकारी अस्पताल या रास्तों को ही ले लीजिए। हम पढ़े-लिखे समाज के द्योतक बनते हैं,लेकिन अपने फायदे और आराम के लिए हर नियम तोड़ते हैं। अपने स्वार्थ के हिसाब से अपना पक्ष रखना,यही गणतन्त्र राज्य के नागरिकों ने अब तक सीखा है। गाँवों की तस्वीर तो आर्थिक विपन्नता के कारण और भी सोचनीय है। सरकारी योजनाओं से सिर्फ धन की प्राप्ति तक ही उनका देश-धर्म है,और राष्ट्रप्रेम है। देश की समस्याओं पर चर्चा करते हुए सरकारी धन,स्थलों व वस्तुओं का व्यक्तिगत उपयोग करना जारी ही है। हमारे नैतिक मूल्य ईमानदारी,सत्यता,समर्पण इन सबका मूल्य तिरोहित-सा हो गया है ।
यह भी विचारणीय है कि,एक गणतन्त्र राज्य में इतने वर्षों में बिजली पहुँच पाई है। और यह तो डूब मरने की बात है कि इतने वर्षों के बाद हमारे देश के नागरिकों में शौचालय की समझ पैदा की जा रही है। स्वच्छता के लिए प्रेरित किया जा रहा है। प्रधानमन्त्री से लेकर हर ओहदेदार व्यक्ति कई सालों से झाड़ू लगा रहे हैं,लेकिन गलियां और रास्ते कूड़े के ढेर से पटा पड़ा है ।
जनता लकीर की फकीर बनी बैठी है। तमाशा देखती है,तो कभी तमाशबीन बन जाती है। नेताओं के भाषण में सभी समस्याएं दूर होती जाती हैं, यथार्थ में कुछ भी नहीं। अच्छे विचारक बनकर इस बेहाल जनता का दु:ख दूर नहीं होगा। देश सेवा के भाव अन्दर से जागें,तभी कल्याण होगा। जो हमारा आधार था किसान और कृषि,वह सब छूटता और टूटता चला गया। जो हमारी पहचान थी कृषि और किसान,आज इतने वर्षों में वह पक्ष अत्यधिक कमजोर है। अगर हम कुछ करने का दृढ़ संकल्प कर लें तो हम उसको अवश्य पूरा कर सकते हैं, क्योकि ‘कौन सो काज कठिन जग माही’…यह संभावनाओं का देश है। यहाँ के युवाओं में कुछ कर गुजरने वालों का रक्त बहता है।
जय हिंद,जय भारत।