भटकी है जिन्दगी

विजयलक्ष्मी विभा इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)********************************************** रोज नयी पीड़ाएँ,रोज नयी त्रासदी,चिन्ता के जंगल में भटकी है जिन्दगी। सिकुड़न के घाव बने,भूखों के पेट परजीने के अर्थ मिटे,किस्मत की स्लेट पर।चेहरों से लोप हुई,आशा की ताजगी…॥ जजवाती अंधड में,अब किसकी खैर हैभाई का भाई से,आखिर तक बैर है।बजती है शाम सुबह,द्वन्दों की दुंदुभी…॥ पहचानी जाय नहीं,शक्ल गुनहगार कीसच हो या … Read more

आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा  इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश) ********************************************************* आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-१४……………… इसीलिए तो कहती हूँ माँ, मैं भी अपना पति चुन लूँगी लघु जीवन के ताने-बाने, अपने हाथों से बुन लूँगी। मैं तेरी चिन्ता का कारण, नहीं अधिक दिन बनी रहूँगी देकर जन्म पराया कहती, यही परापन न सहूँगी। माता-पिता नहीं जब अपने, तो कोई क्यों होगा अपना … Read more

आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा  इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश) ********************************************************* ‘आत्मजा’ खंडकाव्य से अध्याय-६ वन मयूर को रहा न जाता, बिना बुलाये अपना दर्शक रंग-बिरंगे पंख खोल कर, किसे दिखाये नृत्य प्रदर्शक। चातक किसे सुनाये अपनी, मधुर-मधुर वह मौलिक कविता जिसके भावों से आच्छादित, नभ में स्वयं न दिखता सविता। भर-भर कूप उड़ेला करती, धो-धो घट ऊपर से चपला घट-घट यहाँ … Read more

आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा  इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश) ********************************************************* ‘आत्मजा’ खंडकाव्य से अध्याय-६ करती माँ आगाह सदा यों, बेटी अब तू हुई सयानी रखना फूँक-फूँक पग आगे, नाजुक होती बहुत जवानी। समझ न पाती माँ की बातें, आगे कुछ भी पूछ न पाती मुँह तक आता प्रश्न किन्तु वह, लज्जा फिर आड़े आ जाती। प्रश्न-प्रश्न ही रहे सदा से, मिले … Read more