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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आत्मजा खंडकाव्य से अध्याय-१४………………
इसीलिए तो कहती हूँ माँ,
मैं भी अपना पति चुन लूँगी
लघु जीवन के ताने-बाने,
अपने हाथों से बुन लूँगी।

मैं तेरी चिन्ता का कारण,
नहीं अधिक दिन बनी रहूँगी
देकर जन्म पराया कहती,
यही परापन न सहूँगी।

माता-पिता नहीं जब अपने,
तो कोई क्यों होगा अपना
यही एक कारण है व्यापक,
नारी जाति को पड़ता तपना।

जा विवाह की कर तैयारी,
मैं लाती हूँ तुझे जमाई
नहीं पराया धन रख घर में,
कर बेटी की तुरत विदाई।

सुन कर यों बेटी की बातें,
बरसी माँ की आँखें सहसा
पा संकेत व्यंजना में पर,
चिन्ता बढ़ी,बढ़े ज्यों सुरसा।

यह तो नहीं क्रोध है उसका,
एक घोषणा है भविष्य की
पढ़-लिख कर वह लगी दिखाने
हमें झलकियां उस अदृश्य की।

जाने क्या कह गई प्रभाती,
जाने क्या मन्तव्य छिपाये
यौवन की इस महा दशा में,
जाने क्या गुल अभी खिलाये।

अति उदास अति खोयी-खोयी,
पति के निकट पहुँच कर बोली
जाकर सुनो स्वयं कानों से,
क्या कहती बेटी मुँहबोली।

नहीं उम्र का ध्यान तुम्हें है,
सिर्फ पढ़ाते रहे पढ़ाई
मलते हाथ रहोगे जिस दिन,
कर लेगी वह स्वयं सगाई।

बेटी कितनी ही पढ़-लिख ले,
कितनी बड़ी बने वह अफसर
किन्तु भेजना न्यायोचित है,
उसे समय पर ही उसके घर।

ऐसा क्या हो गया बताओ,
क्यों छेड़ा फिर राग पुराना
कल तक तो था प्रिये तुम्हारी,
खुशियों का भी नहीं ठिकाना।

उसने जो संकेत किया है,
है भविष्य का ही वह सूचक
बात बोलते सदा घुमा कर,
बहुत सुघर हो जिनका मस्तक।

अभी बनी वह जिला कलेक्टर,
अभी बहुत बढ़ना है आगे
मत पहनाओ कठिन बेड़ियाँ,
बहुत उँचाई चढ़ना आगे।

हर लड़की बनती है पत्नी,
हर लड़की बनती है माता
किन्तु हजारों में देता है,
किसी एक को हुनर विधाता।

अपने घर तो जायेगी ही,
और सँभल जाने दो थोड़ा
मिलने दो वह वर तो उसका,
प्रभु ने जिसे बनाया जोड़ा।

आयेगा वह जिस दिन सम्मुख,
नहीं विवाह रुकेगा उसका
और न जब तक वह मिल जाता,
कुछ भी नहीं हमारे वश का।

सुन कर पति की बात सुप्रभा,
कुछ विचलित-सी होकर बोली
हो जाती मति यों ही उलटी,
जब करती है प्रकृति ठिठोली।

कैसे समझाये वह पति को,
कैसे बेटी को समझाये
होनी ही होती जब उलटी,
बात किसी को समझ न आयेll

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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