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चिट्ठी हमारे नाम:अपनी भाषा के लिए लड़ना होगा

प्रेमपाल शर्मा,
बंगलुरु(कर्नाटक)
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अत्र कुशलम तत्रास्तु!
सबसे पहले बात भाषा की। आवासीय सोसायटी में रहने वाली डॉ. मीनाक्षी महाराष्ट्र की है। पिछले २ वर्ष से बैंगलोर में हैं। बेटी १२वीं में निजी उर्फ पब्लिक स्कूल में विषय कॉमर्स,साथ में अंग्रेजी और हिंदी। हिंदी सुनकर मुझे कुछ आश्चर्य मिश्रित झटका लगा,क्योंकि दिल्ली में मेरे आस-पास रहने वाले किसी भी निजी विद्यालय के विज्ञान, वाणिज्य के छात्र के मुँह से ११-१२वीं में हिंदी नहीं सुनी। हिंदी क्यों ? उन्होंने बताया कि,अंग्रेजी के साथ एक और भाषा लेनी होती है। आप कन्नड़ या हिंदी में एक चुन सकते हैं। हमने हिंदी चुनी,क्योंकि इससे पहले दसवीं में महाराष्ट्र बोर्ड में भी मराठी के साथ हिंदी पढ़ी थी। विज्ञान के विद्यार्थियों को भी दोनों भाषाएं लेनी अनिवार्य हैं। इसके अलावा और भी कोई विषय जोड़ सकते हैं अपनी मर्जी से। महाराष्ट्र,आंध्र प्रदेश,केरल…में भी लगभग ऐसा ही है।
दिल्ली का हाल ? दिल्ली में हिंदी आठवीं के बाद ही छूट जाती है। सरकारी विद्यालयों को छोड़कर नवीं कक्षा में आते ही अंग्रेजी तो अनिवार्य है,हिंदी अनिवार्य नहीं है। हिंदी का विकल्प फ्रेंच,जर्मन जापानी से लेकर दुनिया भर की भाषाएं हैं। फिर सीबीएसई के लगभग सभी विद्यालयों में ११वीं में तो अंग्रेजी अनिवार्य है,दूसरी भाषा नहीं। उसकी जगह सैकड़ों विषयों के विकल्प हैं। यही कारण है कि दिल्ली के इन मालदार विद्यालयों के बच्चे सब-कुछ रटते,जानते हैं, हिंदी नहीं। दिल्ली के सारे विश्वविद्यालय जेएनयू,जामिया,आम्बेडकर समेत इसीलिए जबरन अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाते हैं। हिंदी प्रदेशों से विशेषकर यूपी,बिहार से आए नौजवान मजबूरन इसी रंग में रमते जाते हैं। इन्हीं का कब्जा आगे चलकर संघ लोक सेवा आयोग,प्रबंधन संस्थान,विधि महाविद्यालय और पूरी सरकार पर होता है।
जब देश के बाकी राज्यों में त्रिभाषा सूत्र ठीक-ठाक काम कर रहा है,और धीरे धीरे हिंदी को भी उचित सम्मान मिल रहा है तो दिल्ली जैसे राज्य में अपनी भाषा की अनदेखी क्यों ? इसी की देखा-देखी उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के सीबीएसई के विद्यालयों में ११वीं से हिंदी गायब हो गई है। उसी का असर और नीचे फैल रहा है,जिसकी वजह से इस साल उप्र बोर्ड में हिंदी विषय में दसवीं-बारहवीं के लगभग १० लाख बच्चे अनुत्तीर्ण हुए हैं। अफसोस कि इन्हें अंग्रेजी तो आती ही नहीं,अपनी भाषा भी भूलते जा रहे हैं। नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में इस पर विशेष ध्यान देना होगा।
बंगलुरु की अच्छी बात के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से बहुत दु:खद सूचनाएं मिल रही हैं। उत्तर प्रदेश सेवा आयोग के पिछले महीने परिणाम के बाद एक उम्मीदवार ने आत्महत्या कर ली है। मामला वहां भी अपनी भाषा हिंदी के मुकाबले लगभग ७० फीसदी अंग्रेजी माध्यम के बच्चों का चुना जाना है। (यूपीएससी में ९७ प्रतिशत अंग्रेजी वाले)।
किसी भी नौजवान की आत्महत्या पूरे राष्ट्र के लिए दुखद और शर्मनाक है,चाहे वह रोहित वेमुला हो या इंदौर में अभियांत्रिकी का छात्र अथवा ५ वर्ष पहले दिल्ली के एम्स में अंग्रेजी के दबाव में अनिल मीना की आत्महत्या। मेरी नौजवानों को पहली सलाह तो यही है कि हत्या या आत्महत्या कोई रास्ता नहीं है। हमें लड़ना होगा,लेकिन किससे और कहां ? जब दिल्ली समेत इलाहाबाद,लखनऊ, बनारस,पटना,जयपुर…के विश्वविद्यालय की पढ़ाई भी धीरे-धीरे अंग्रेजी माध्यम की तरफ लगातार बढ़ रही हो तो क्या सिर्फ लोक सेवा आयोगों को दोष देने से हल निकलेगा ? नहीं! हल निकलेगा विश्वविद्यालय और शालेय शिक्षा में अपनी भाषाओं के माध्यम से पढ़ने-पढ़ाने से। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास,राजनीति शास्त्र,मनोविज्ञान,समाजशास्त्र आदि में ८० प्रतिशत से ज्यादा प्राध्यापक हिंदी भाषी राज्यों के हैं। अंग्रेजी भी उन्हें सरकारी स्तर की ही आती है,तो फिर यह सब ऐसा माहौल क्यों नहीं बनाते,जिससे अधिक से अधिक छात्र अपनी भाषा को माध्यम बनाएं। और यहीं से आयोगों की परीक्षा देने वालों की संख्या और ज्यादा बढ़ेगी। आयोगों में बैठे सदस्यों को भी अपनी भाषाओं के प्रति नकारात्मक पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की जरूरत है। शिक्षा पर कस्तूरीरंगन प्रतिवेदन में अंग्रेजी आभिजात्य और अहंकार की अच्छी खबर ली गई है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों (और दिल्ली में रहने वाले १००० महान लेखक)को भी सूर,कबीर, जादुई,उत्तर आधुनिक…और लौट-लौट कर दलित-धार्मिक विमर्श से आगे भाषाओं के माध्यम की लड़ाई को भी समझने,फैलाने और लड़ने की जरूरत है। अंग्रेजी केवल भाषा के रूप में पढ़ी जानी चाहिए। माध्यम बनाने से पूरी शिक्षा,प्रशासन और न्यायपालिका का नाश हो रहा है।
अच्छा हो कि आने वाले सत्र में नई शिक्षा नीति के अनुरूप और देश के दूसरे राज्यों से सबक लेते हुए दसवीं तक हिंदी अनिवार्य की जाए। ११वीं कक्षा में भी अंग्रेजी के साथ हिंदी या दूसरी भाषाओं का विकल्प कर्नाटक की तरह मौजूद रहे। दिल्ली सरकार ने शिक्षा में कई नई शुरुआत की है,लेकिन अपनी भाषा के बिना ये सब सुधार किसी बुनियादी परिवर्तन की तरफ शिक्षा को नहीं ले जा सकते अरविंद केजरीवाल जी और सिसोदिया जी।

(सौजन्य:वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

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