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वीरता और पराक्रम का नाम है रानी लक्ष्मीबाई

डॉ. नीलम महेंद्र
ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
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आसान नहीं होता महिला होने के बावजूद पुरूष प्रधान समाज में विद्रोही बनकर अमर हो जाना,आसान नहीं होता एक महिला के लिए एक साम्राज्य के खिलाफ खड़ा हो जाना,पर हम जिस रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित करते हैं वो उस वीरता,शौर्य,साहस और पराक्रम का नाम है जिसने अपने छोटे से जीवनकाल में वो मुकाम हासिल किया, जिसकी मिसाल आज भी दुर्लभ है। ऐसे तो बहुत लोग होते हैं जिनके जीवन को या फिर जिनकी उपलब्धियों को उनके जीवन काल के बाद सम्मान मिलता है लेकिन अपने जीवन काल में ही अपने चाहने वाले ही नहीं, बल्कि अपने विरोधियों के दिल में भी एक सम्मानित जगह बनाने वाली विभूतियां बहुत कम होती हैं। रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही एक शख्सियत थीं जिन्होंने ना सिर्फ अपने जीवन काल में लोगों को प्रेरित किया,बल्कि आज तक वो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। एक महिला जो मात्र २५ वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का जज्बा रखती हो,वो निसंदेह हर मानव के लिए प्रेरणास्रोत रहेगी। वो भी उस समय जब १८५७ की क्रांति से घायल अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे और बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में एक महिला की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी,क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई की इस दहाड़ की गूंज झांसी तक सीमित नहीं रही। परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे देशभर के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले विद्रोह सामने आने लगे। दरअसल झाँसी के लिए, अपनी भूमि की स्वतंत्रता के लिए,अपनी प्रजा को अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए रानी लक्ष्मीबाई के दिल में जो आग धधक रही थी वो १८५८ में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे कर पूरे भारत में फैला दी। उन्होंने अपनी स्वयं की आहुति से उस यज्ञ अग्नि को प्रज्वलित कर दिया था जिसकी पूर्ण आहुति
१५ अगस्त १९४७ को डली। हालांकि,रानी लक्ष्मीबाई अकेले होने के कारण अपनी झाँसी नहीं बचा पाईं लेकिन देश को बचाने की बुनियाद खड़ी कर गईं। एक मार्ग दिखा गईं,निडरता का पाठ पढ़ा गईं,अमरत्व की राह दिखा गईं। उनके साहस और पराक्रम का अंदाजा जनरल ह्यूरोज के इस कथन से लगाया जा सकता है कि अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आज़ादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा। कल्पना कीजिए एक महिला की जिसकी पीठ पर नन्हा बालक हो,उसके मुँह में घोड़े की लगाम हो और उसके दोनों हाथों में तलवार!! शायद ,हाँ हमारे लिए यह कल्पना करना इतना मुश्किल भी नहीं है क्योंकि हमने उनकी मूर्तियाँ देखीं हैं,उनकी ऐसी तस्वीरें देखी हैं, लेकिन ये औरत कोई मूर्ति नहीं है,कोई तस्वीर नहीं है किसी वीर रस के कवि की कल्पना भी नहीं है,यह हकीकत है। शायद इसलिए वो आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी,हाँ वो अमर है और सदियों तक रहेगी। जानते हैं क्यों ? क्योंकि वो केवल इस देश के लोगों के दिलों में ही जिंदा नहीं है,वो आज भी जिंदा है अपने दुश्मनों के दिल में,अपने विरोधियों के दिलों में उन अंग्रेजों के दिलो-दिमाग में जिनसे उन्होंने लोहा लिया था। हाँ यह सच है कि अंग्रेज रानी से जीत गए थे, लेकिन वो जानते थे कि वो इस लड़ाई को जीत कर भी हार गए थे। वो एक महिला के उस पराक्रम से हार गए थे जो एक ऐसे युद्ध का नेतृत्व निडरता से कर रही थी जिसका परिणाम वो जानती थी। वो एक महिला के उस जज्बे से हार गए थे जो अपने दूध पीते बच्चे को कंधे पर लादकर रणभूमि का बिगुल बजाने का साहस रखती थी। शायद इसलिए वो उनका सम्मान भी करते थे। उस दौर के कई ब्रिटिश अफसर बेहिचक स्वीकार करते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई बहादुरी बुद्धि,दृढ़ निश्चय और प्रशासनिक क्षमता का दुर्लभ मेल है,और उन्हें अपना सबसे खतरनाक शत्रु मानते थे। जिस शख्शियत की तारीफ करने के लिए शत्रु भी मजबूर हो जाए,तो किरदार का अंदाज़ा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है।
शायद,इसलिए वो आज भी हमारे बीच जीवित हैं फिल्मों में,टी.वी. धारावाहिक में, किस्सों में,कहानियों में,लोक गीतों में,कविता में और उनके नाम पर विश्विद्यालय का नामकरण करके उनके पुतले बनाकर,पर इतना काफी नहीं है। प्रयास कीजिए उनका थोड़ा-सा अंश हमारे भीतर भी जीवित हो उठे।

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