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जनता के घावों पर नमक महंगे होते चुनाव

ललित गर्ग
दिल्ली

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चुनाव जनतंत्र की जीवनी शक्ति है। यह राष्ट्रीय चरित्र का प्रतिबिम्ब होता है। जनतंत्र के स्वस्थ मूल्यों को बनाए रखने के लिए चुनाव की स्वस्थता, पारदर्शिता और उसकी शुद्धि अनिवार्य है। चुनाव की प्रक्रिया गलत होने पर लोकतंत्र की जड़ें खोखली होती चली जाती हैं। चुनाव प्रक्रिया महंगी एवं धन के वर्चस्व वाली होने से विसंगतिपूर्ण एवं लोकतंत्र की आत्मा का हनन करने वाली हो जाती है। करोड़ों रुपए का खर्चीला चुनाव,अच्छे लोगों के लिए जनप्रतिनिधि बनने का रास्ता बन्द करता है और धनबल एवं धंधेबाजों के लिए रास्ता खोलता है। लगभग यही स्थिति अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव एवं बिहार के विधानसभा चुनावों में देखने को मिल रही है। ‘कोरोना’ महामारी के दौर में इन चुनावों में अर्थ का अनुचित खर्च का प्रवाह जहां चिन्ता का कारण बन रहा है,वहीं समूची लोकतांत्रिक प्रणाली को दूषित करने का सबब भी बन रहा है। इसके विरोध में व्यापक जनचेतना को जगाना जरूरी है।
बात अमेरिका की हो या बिहार की,चुनाव के समय हर राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता है तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से ज्यादा मत प्राप्त करने की अनैतिक तरकीबें निकालता है। एक-एक प्रत्याशी चुनाव का प्रचार-प्रसार करने में करोड़ों रुपयों का व्यय करता है। यह धन उसे पूंजीपतियों एवं उद्योगपतियों से मिलता है। चुनाव जीतने के बाद वे उद्योगपति उनसे अनेक सुविधाएं प्राप्त करते हैं। इसी कारण सरकार उनके शोषण के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठा पाती और अनैतिकता एवं आर्थिक अपराध की परम्परा को सिंचन मिलता रहता है। यथार्थ में देखा जाए तो जनतंत्र अर्थतंत्र बनकर रह जाता है,जिसके पास जितना अधिक पैसा होगा,वह उतने ही अधिक मत खरीद सकेगा। इस तरह लोकतंत्र की आत्मा का ही हनन होता है,इस सबसे उन्नत एवं आदर्श शासन प्रणाली पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े होते हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में हो रहे बेशुमार खर्च की तपिश समूची दुनिया तक पहुंच रही है। इस साल कई वजहों से रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बने डोनाल्ड ट्रम्प और डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जो बाइडेन के बीच की प्रतिद्वंद्विता सुखिर्याें में है। दोनों ने ही मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए तिजोरियां खोल दी है,अमेरिका में तो इन चुनावों में खर्च के लिए दान की प्रक्रिया भी है। इस नजरिए में भी अर्थ का वर्चस्व ही समाया हुआ है। दुनिया के सभी जनतांत्रिक राष्ट्रों के लिए लगातार महंगे होते चुनाव एक बड़ी समस्या बन रहे हैं।
अमेरिका में इस बार कोरोना महामारी के दौर में इस चुनाव में अगर मुद्दों से इतर अभियानों की बात करें तो यह खबर ज्यादा ध्यान खींच रही है कि अमेरिका में इस बार चुनाव अब तक के इतिहास में सबसे खर्चीला साबित होने जा रहा है। अनुमान यह लगाया जा रहा था कि इस बार अमेरिका चुनावों में ११ बिलियन डाॅलर खर्च होगा,लेकिन शोध संस्थान द सेन्टर फाॅर रेस्पाॅन्सिव पाॅलिटिक्स के आकलन के मुताबिक पिछले रिकार्डों को ध्वस्त करते हुए २०२० में राष्ट्रपति चुनाव की लागत १४ बिलियन डाॅलर के आसपास हो सकती है।
अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव कहां कोई आदर्श प्रस्तुत कर पाए हैं ? इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है,जो लोग चुनाव जीतने के लिए इतना अधिक खर्च कर सकते हैं तो जीतने के बाद पहले अपनी जेब भरेंगे,दुनिया पर आर्थिक दबाव बनाएंगे। मुख्य बात तो यह है कि यह सब पैसा आता कहां से है ? कई कम्पनियां हैं जो इन सभी चुनावी दलों एवं उम्मीदवारों को पैसे देती है चंदे के रूप में। यदि किसी बड़ी कम्पनी ने धन दिया है तो वह सरकार की नीतियों में हेर-फेर करवा कर लगाए गए धन से कई गुणा वसूल लेती है। इसी लिए वर्तमान दुनिया की राजनीति में धन-बल का प्रयोग चुनाव में बड़ी चुनौती है। सभी दल पैसे के दम पर चुनाव जीतना चाहते हैं,जनता से जुड़े मुद्दों एवं समस्याओं के समाधान के नाम पर नहीं।
बिहार के विधानसभा चुनाव में ज्यादातर प्रत्याशी करोड़पति हैं,बिहार के दोनों प्रमुख गठबंधनों ने अधिसंख्य उम्मीदवार धनाढ्यों को बनाकर बिहार की गरीब जनता के जले घावों पर नमक छिड़का है।
राजनीति के खिलाड़ी सत्ता की दौड़ में इतने व्यस्त हैं कि उनके लिए विकास,जनसेवा,सुरक्षा, महामारियां,आतंकवाद की बात करना व्यर्थ हो गया है। सभी दल जनता को गुमराह करते नजर आते हैं। सभी जीवन मूल्य बिखर गए हैं,धन तथा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए सत्ता का अर्जन सर्वोच्च लक्ष्य बन गया है,बात चाहे भारत की हो या अमेरिका की। सबसे बड़ी विडम्बना एवं विसंगति है कि ये चुनाव आर्थिक विषमता की खाई को बढ़ाने वाले साबित होने जा रहे हैं। आखिर कब तक लोकतंत्र इस तरह की विसंगतियों पर सवार होता रहेगा ?

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