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जल,वायु से सजतीं बहारें

हीरा सिंह चाहिल ‘बिल्ले’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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रचना शिल्प:२२२ २२२ १२२


जल,वायु से सजतीं बहारें,
धरती में इनसे ही नजारे।
मधुरम बनके धरती गगन को,
बूंदों की चाहत में निहारे॥
जल,वायु से…

बूंदें,बादल देता धरा को,
बिन बूंदों के सूखी धरा हो।
कैसे फिर सज पाए धरा ये,
मिलती ही न इसको कदर तो,
कैसे सज पाएंगी बहारें।
जल,वायु से…

सूखीं नदियां,वन-वृक्ष कटते,
झुलसें पर्वत,हिम भी पिघलते।
अंगारों से मौसम भी जलते,
रक्षक (मानव)ही बन बैठे हों भक्षक,
फिर कैसे सज जाएं नजारे।
जल,वायु से…

अति-उत्तम मानव ही प्रजाति,
पर ये ही सृष्टि को मिटाती।
सुख दोहन कर दु:ख को बचाती।
इक पल को सोचे न अनुज की।
जो पायीं वो तो दें बहारें।
जल,वायु से…॥

परिचय-हीरा सिंह चाहिल का उपनाम ‘बिल्ले’ है। जन्म तारीख-१५ फरवरी १९५५ तथा जन्म स्थान-कोतमा जिला- शहडोल (वर्तमान-अनूपपुर म.प्र.)है। वर्तमान एवं स्थाई पता तिफरा,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)है। हिन्दी,अँग्रेजी,पंजाबी और बंगाली भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री चाहिल की शिक्षा-हायर सेकंडरी और विद्युत में डिप्लोमा है। आपका कार्यक्षेत्र- छत्तीसगढ़ और म.प्र. है। सामाजिक गतिविधि में व्यावहारिक मेल-जोल को प्रमुखता देने वाले बिल्ले की लेखन विधा-गीत,ग़ज़ल और लेख होने के साथ ही अभ्यासरत हैं। लिखने का उद्देश्य-रुचि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-कवि नीरज हैं। प्रेरणापुंज-धर्मपत्नी श्रीमती शोभा चाहिल हैं। इनकी विशेषज्ञता-खेलकूद (फुटबॉल,वालीबाल,लान टेनिस)में है।

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