हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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मुसाफिर अपनी गठरी बांध,
चल रहा तू अपनी हर चाल
समय का खेल होता है अलबेला,
ऊँची उड़ान को कब कर दें धराशाई।
तू सोचता है तेरे से ज्यादा समझदार और कोई नहीं,
पर भूल जाता है तुझे बनाने वाले को सब पता है
क्यों ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती,
ऊँची उड़ान को कब कर दें धराशाई।
ज़िन्दगी में कल ही नहीं पल का भरोसा नहीं,
पर तेरी सोच बरसों की है।
माया लोभी बन तिजोरी भरने से क्या होगा ?
ऊँची उड़ान को कब कर दें धराशाई॥
