कुमारी ऋतंभरा
मुजफ्फरपुर (बिहार)
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बीत गया है रविवार,
आया फिर से सोमवार
हफ्तेभर की भागम-भागी,
शहर हो या फिर हो गाँव की गलियाँ
मन में सपने लिए आँखों में मासूम चमक,
आते हैं हम सब जब अपनी पाठशाला।
पाठशाला जाने का उत्साह,
शिक्षक-शिक्षिका साथ मिलते
बातें करते, साथ बैठ चाय की चुस्की हैं लेते,
सब शिक्षक साथी आपस ही बैठ कर अपने-अपने बातें करते,
बच्चे भी होते उत्सुक
आपस में होमवर्क क्या मिला ?
इसकी हर दम बातें करते।
आज फिर सोमवार आया,
यह पल बहुत ही सुन्दर होता
जहां पहली बार गुरू का ज्ञान प्राप्त होता।
प्रेम अपार था गुरु की डाँट में,
हर होमवर्क में छिपा होता ज़िन्दगी का सुनहरा सबक
यह हमारी पाठशाला नहीं हैं,
सिर्फ अक्षर का ज्ञान नहीं हैं
यहां संस्कार और संस्कृति सिखाई जाती,
गुरुदेव से पाठशाला में संस्कार ऐसे मिलते
जिससे ‘डर’ आत्मविश्वास में बदल जाता,
अपने पैरों पर हमें खड़ा होना सिखाया जाता।
आज देख पाठशाला का दृश्य मन हमारा बहुत दुःखी है,
मन बिल्कुल सहमा-सहमा है
चौराहे हो या रास्ते कहीं भी हो जाती शिक्षक की हत्या,
आज देख रहे हैं हम खुद भी शिक्षक करते आत्महत्या।
वक्त तो बीत जाता है,
प्रेम कहीं खत्म हो गया है
शिक्षक के भी आपस का,
आपस में सब किच-किच करते
कभी हाजरी तो कभी क्लास को लेकर,
हरदम पठन-पाठन का आपस में शिक्षकों की लड़ाई है चलती
अवकाश हो या विशेषावकाश,
सभी करते आपस में ही लड़ाई- झगड़े
मेरी प्यारी मैडम रानी डर जाती यह देख कर,
रहती डरी बिल्कुल सहमीं
बैठी रहती कहीं अकेली।
घर से आती चलो पाठशाला,
थोड़ा हँसेंगे शिक्षक संग
बच्चों संग हँस कर दिन बीतेगा,
देखती मैडम हरदम शिक्षक हो या प्रधानाचार्य
आपस में सब तू-तू, मैं-मैं करते,
कैसे बिठाएं तालमेल ?
मेरी प्यारी मैडम रानी,
नहीं चाहती किसी से लड़ना
तभी बैठती अकेले सदा,
बच्चों की मैडम रानी
मन को है सदा भाती,
सबसे प्रेम और आदर करती
पर हमारी पाठशाला है अब बिल्कुल उदास।
चलो-चलो आया फिर से सोमवार,
जीवन को हम सफल बनाएं
पाठशाला हमारे बचपन की पहली डगर,
सारे सपने लगे उम्मीद से भरे
सपने सारे अब पूरे हो रहे।
मुझे थी पाठशाला कितनी प्यारी,
चलो आया फिर से सोमवार…॥
