कमलेकर नागेश्वर राव ‘कमल’,
हैदराबाद (तेलंगाना)
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◾सारांश-
प्रेमचंद जी की उपन्यास एक से अधिक उनकी कहानियों में सामयिकता के अनेक चित्र भरे पड़े हैं। दहेज प्रथा और अनमेल विवाह के सजीव चित्रण ‘निर्मला’ उपन्यास और ‘कुसुम’, ‘उद्धार’ आदि कहानियों के माध्यम से विश्व के सम्मुख आए हैं।
प्रेमचंद जी किसानों को शोषण और दमन से बचाना चाहते थे। देश की मुक्ति में नारी और दलित के साथ-साथ किसानों की मुक्ति भी थी, जिसके संबंध में प्रेमचंद जी ने दूसरे अंक में ‘स्वराज्य से किसका हित होगा’ सिर्फ एक टिप्पणी में लिखा।
प्रेमचंद जी ने धार्मिक कुरीतियों पर कुठाराघात करते हुए उन्हें तोड़ने का प्रयास किया है। ‘गोदान’ उपन्यास शीर्षक से धार्मिक अनुष्ठान का प्रतीक होते हुए भी एक तीखा व्यंग्य है। धर्म के नाम पर होने वाले अत्याचार और गरीब जनता का शोषण उनकी कई उपन्यासों में आया है विशेषकर गोदान उपन्यास के अंत में वे बताते हैं, कि शोषण के सारे साधन भले ही पीछे रह जाए, धर्म मनुष्य के अंतिम क्षणों का भी दोहन करता है।
‘महाजनी सभ्यता’ लेख में प्रेमचंद का भी मत है, कि धन से अधिक धर्म शोषण की सीमा है, किंतु धर्म मूल्य और विश्वास का दोहन करता है। धर्म और ईश्वर के प्रति अनपढ़ एवं ग्रामीण जनता के मनोभावों का प्रेमचंद ने बडी गहनता से अभिव्यक्त किया है। प्रेमचंद जी हिंदी कथा साहित्य के सम्राट माने जाते हैं। प्रेमचंद जी ने सामाजिक उपन्यासों की रचना की, जिनके द्वारा समाज में राष्ट्रीय चेतना डालना चाहते थे। प्रेमचंद जी की रचनाओं में जहां संघर्ष और पराजय है, वहाँ जीवन की अदम्य साहस और आशा का प्रबल है।
प्रेमचंद जी अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट बन गए। प्रेमचंद जी ने भाषा को एक ऐसा रूप प्रदान किया, जो जनजीवन की भाषा मानी जाती। हिंदुस्तानी भाषा के रूप को जन भाषा में रूपांतरित किया। प्रेमचंद जी का समय हिंदी उर्दू के मिले-जुले रूप का समय था, जिसे हिंदुस्तानी कहा जाता था। प्रेमचंद जी ने अपनी रचना और लेखों द्वारा इसी भाषा का समर्थन किया। यह जनता की भाषा थी और प्रेमचंद जनता के लेखक थे।
◾प्रस्तावना-
हिंदी उपन्यास और कहानी साहित्य के युग निर्माता उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का जन्म मुंशी अजायब लाल, आनंद देवी के गर्भ में ३१ जुलाई (१८८०) को काशी स्थित लमही नामक गाँव में हुआ। प्रेमचंद का असली नाम ‘धनपत राय’ था।
प्रेमचंद जी माँ के अभाव की अनुभूति इतनी गहराई से करते थे कि ‘कर्मभूमि’ उपन्यास में माँ के महत्व को चंद्रकांँत के मुख से निम्नलिखित शब्दों में कहलवाया है- “बचपन वह उम्र है, जब इंसान को मोहब्बत की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है, उस वक्त पौधे को पूरी खुराक मिल जाए तो ज़िंदगी भर के लिए उसकी जड़ें मजबूत हो जाती हैं। मेरी माँ के देहांत के बाद मेरी रूह को खुराक नहीं मिलेगी, वही भूख मेरी ज़िंदगी है।”
पारिवारिक जीवन की दृष्टि से प्रेमचंद जी का जीवन विविध विषमताओं में पला था। इसका परिणाम है कि पहला विवाह असफल था और दूसरा मुंशी देवी प्रसाद की बाल विधवा कन्या शिवरानी देवी से हो गया।
◾व्यक्तित्व-
प्रेमचंद जी का व्यक्तित्व अत्यंत सरल, सादा और सहज किंतु असाधारण था। प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय प्रेमचंद की इसी आसाधारणता को रेखांकित करते हैं- “प्रेमचंद की सरलता सहज है। उसमें कुछ तो इस देश की पुरानी मिट्टी का संस्कार है, कुछ उसका नैसर्गिक शील है, संकोच है, कुछ उसकी गहरी जीवन दृष्टि है और कुछ उसका सच्चा आत्म गौरव है, जो किसी तरह के आत्म प्रदर्शन या विज्ञापन को उसके नजदीक घटिया बना देता है।”
व्यापक विचार धारा रखने वाले प्रेमचंद जी अत्यंत सहृदय व्यक्ति थे। दूसरों के दु:खों के प्रति सहानुभूति तथा संवेदनशील थे। वे स्वयं कहते थे कि ”मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्डे तो हैं पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है।” अर्थात प्रेमचंद जी अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करने पर भी वे अपने जीवन को बहुत ही सामान्य समझते थे। वे अत्यंत सामान्य व्यक्ति के असामान्य रचनाकार थे।
◾साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश-
प्रेमचंद जी की रचनाओं से तो भारत की अधिकांश जनता परिचित है। प्रत्येक साहित्यकार अपनी युग की परिस्थितियों और समस्याओं से प्रभावित होता है। वह उन परिस्थितियों एवं समस्याओं का चित्रण अपने साहित्य में करता है। प्रेमचंद जी के साहित्य का उचित मूल्यांकन करने के लिए उनकी सम-सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन करना आवश्यक है। प्रेमचंद जी की रचनाओं में राष्ट्रीय चेतना, नारी विषयक दृष्टिकोण, दलित विमर्श और मुख्य रूप से किसानों के प्रति प्रेम पूर्ण दृष्टिकोण का चित्रण है। प्रेमचंद जी का जीवन आरंभ से अंत तक संघर्ष में रहा। प्रेमचंद जी ने सामाजिक परिस्थितियों और समस्याओं का वर्णन देश में व्याप्त दहेज प्रथा, विधवा विवाह, बंदूक, मजदूर, शराबबंदी, जातिवाद, हरिजनों का शोषण, शादी विवाह, मृत्यु भोज आदि में होने वाली फिजूलखर्ची को अपनी कथा साहित्य में माध्यम से चित्रित किया है।
सन् १९०१ में साहित्य ज़िंदगी शुरू की। १९०८ में उनकी उर्दू में लिखी कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ जब्त हुआ। राष्ट्रप्रेम संबंधी कहानियों के इस संग्रह को देखकर गौरांग प्रभुओं का मन क्षुब्ध हो उठा और उन पर पाबंदी लगाई गई कि वे आगे इस प्रकार की रचनाएँ नहीं करेंगे। उसी क्षण प्रेमचंद जी ने नया नाम रख लिया ‘प्रेमचंद।’
‘सेवासदन’ प्रेमचंद का हिंदी में लिखा पहला उपन्यास है, जो १९१६ में प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद जी को हिंदी में प्रतिष्ठा दिलाने वाले उपन्यास ‘सेवासदन’ को पहले उर्दू में ‘बाजार-ए-हुस्न’ से लिखा गया। प्रेमचंद के उपन्यास साहित्य को उनकी प्रवृत्तियों के आधार पर मुख्यतः २ वर्ग में विभक्त किया जाता है- सामाजिक और राजनीतिक। सामाजिक वर्ग के अंतर्गत ‘वरदान’, ‘सेवा सदन’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘निर्मला’, ‘गबन’ आते हैं, तो राजनीतिक के अंतर्गत ‘प्रेमाश्रय’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ हैं।
◾साहित्य की विशेषताएँ-
यह स्वाभाविक था कि प्रेमचंद जी पर स्वतंत्रता की भावना के वातावरण का प्रभाव पड़े। इसके परिणाम स्वरूप प्रेमचंद जी ने नरम दल और गरम दल में गरम दल के विचारों का समर्थन किया। प्रेमचंद जी की कहानियों में राष्ट्र के निर्माण की चिंता कई रूपों में व्यक्त हुई है।प्रेमचंद देश की आजादी को दलितों की आजादी और मुक्ति से जोड़कर देखते हैं।
प्रेमचंद जी की प्रसिद्ध और चर्चित कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ में प्रेमचंद ने दलितों के पानी पीने की समस्या को केंद्र में रखकर भारतीय परिवेश में दलितों की स्थिति का मार्मिक चित्रण किया है।
मुलिया नामक एक दलित स्त्री के स्वाभिमान, आत्मसम्मान और सौंदर्य को घासवाली कहानी का विषय बनाया है प्रेमचंद ने। ‘पूस की रात’ एक गरीब और दलित किसान की कहानी है,जो पूस की रात में अपने खेतों की रक्षा करने जाता है, परंतु उसकी रक्षा नहीं कर पाता और एक तरह से जानबूझकर अपने खेतों को नीलगायों से नष्ट होने देता। इसमें साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी व्यवस्था के खिलाफ विरोध दर्ज किया गया है।
प्रेमचंद की कहानियों की यह खासियत है कि उसका एक विषय नहीं होता और मुख्य विषय के अलावा दूजा विषय भी खास महत्वपूर्ण होता है और कभी-कभी तो गौण लगने वाला विषय ही प्रमुख होता है।
‘ईदगाह’ में भारतीय संस्कृति के रास्ते में सराबोर भारतीय त्योहार ईद का जितना जीवंत, खुशनुमा, चुलबुला और उमंगों से परिपूर्ण चित्र प्रेमचंद ने खींचा है, वह दुर्लभ है।
‘बड़े भाई साहब’ २ भाइयों की कथा है। बच्चों के व्यक्तित्व के विकास और शिक्षा पद्धति के बारे में प्रेमचंद ने जो विचार एक शताब्दी पूर्व व्यक्त किए थे, उसे आज एक बार फिर सही माना जा रहा है। इसमें ज्ञान- विज्ञान की जानकारी के साथ बुनियादी ज्ञान को भी महत्व दिया गया है।
◾आदर्शोन्मुख यथार्थवाद-
प्रेमचंद की विचारधारा में बराबर आदर्श और यथार्थ का समन्वय रहा है। उन्होंने स्वयं ऐसे दृष्टिकोण को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहा है। ‘सेवा सदन’, ‘रंगभूमि’, ‘गबन’, कर्मभूमि’, प्रेमाश्रय’, ‘गोदान’ आदि सभी उपन्यासों में यह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी विचारधारा सक्रिय रही है, जिसके कारण कथावस्तु और चरित्रों का विकास एक विशेष दिशा में होता है।
◾उपसंहार-
प्रेमचंद जी ने हिंदी साहित्य में ‘कलम का सिपाही’ बनकर अंत तक कई अद्भुत कृतियाँ लिखी हैं। तब से लेकर आज तक हिंदी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ और ना ही कोई और होगा।
(संदर्भ सूची-
-डॉ. बी.आर.ए.ओ.यू यम.ए 1 एच. वि, लेखक समीक्षा श्यामला कांता वर्मा)
