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ज़िंदगी का ताना-बाना

राधा गोयल
नई दिल्ली
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ज़िन्दगी तुझसे कभी शिकवे नहीं किए,
तेरे दिए हर ज़ख्म को हम हँस के सह गए
न तयशुदा तारीख थी, न तयशुदा समय,
विधिना ने कैसा खेल ये खेला था असमय ?
हमको संभलने तक का इक मौका नहीं दिया,
जीवन मेरा खुशहाल था, बेरंग कर दिया
कैसा अजीब ‘ताना-बाना’ तूने बुन दिया ?
उसका सिरा, सिरे से गायब ही कर दिया।

मिल जाता जो सिरा, तो बुन लेती मैं ज़िन्दगी,
खुद्दारी से जीकर संवार लेती ज़िन्दगी
ज़िन्दगी तुझसे कभी शिकवे नहीं किए,
तेरे दिए हर ज़ख्म को हम हँस के सह गए
यह ताना-बाना ज़िन्दगी का फिर बुनेंगे हम,
अमृत समझ के जहर को पीते रहेंगे हम
चेतावनी तेरी मुझे स्वीकार ज़िन्दगी
हम भी किसी से कम नहीं, सुन ले ऐ ज़िन्दगी।
हम भी तुझे दिखाएंगे अब जी के ज़िन्दगी,
चेतावनी ही बन गई अब मेरी बन्दगी॥