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‘धन’ को समाज की समृद्धि का माध्यम बनाएं

ललित गर्ग

दिल्ली
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धनतेरस (१८ अक्टूबर) विशेष….

‘धनतेरस’ का पर्व पंच दिवसीय दीपोत्सव की पवित्र श्रृंखला का आरंभिक द्वार है। यह केवल सोना-चाँदी, वस्त्र या बर्तन खरीदने का शुभ दिन नहीं, बल्कि धन के प्रति हमारी सोच को पुनर्संतुलित करने का अवसर है। भारतीय संस्कृति में धन को सदैव देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है, परंतु यह पूजन केवल भौतिक संपदा की नहीं, बल्कि धन के नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उपयोग की भी प्रतीक है। ऋषि-मुनियों ने धन को केवल मुद्रा नहीं, बल्कि ऊर्जा माना है। उपनिषदों में कहा गया है-“धनं मूलं सर्वेषां साधनानाम्”, अर्थात धन सभी साधनों का मूल है, परंतु वही धन शुभ है जो धर्म-संयम से अर्जित और लोककल्याण में नियोजित हो। धनतेरस हमें याद दिलाती है कि धन केवल संग्रह का नहीं, उपयोग का विषय है। धन का सही उपयोग ही उसे ‘लक्ष्मी’ बनाता है, अन्यथा वह ‘अलक्ष्मी’-अशांति और विषमता का कारण है। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को धनतेरस मनाई जाती है। इस तिथि को ‘धनत्रयोदशी’ के नाम से भी जाना जाता है। भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक माना जाता है। ऐसे में यह दिन धन्वंतरि को समर्पित किया गया है।
भारतीय संस्कृति में स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन कहा गया है। भगवान धन्वंतरि को भगवान विष्णु का अंश माना गया है, जिन्होंने मानव समाज को चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) का ज्ञान दिया। इसी कारण धनतेरस के दिन देशभर में वैद्य समाज भगवान धन्वंतरि जयंती के रूप में उनकी पूजा करता है। धनतेरस का ऐतिहासिक महत्व समुद्र मंथन की पौराणिक कथा से जुड़ा है।

जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे, इसलिए इसे ‘धनत्रयोदशी’ भी कहते हैं, तो धन एवं समृद्धि के देवता भगवान कुबेर की भी पूजा की जाती है। भारत सरकार ने धनतेरस को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। इस दिन यम दीपक जलाने का भी विधान है, जिसे दीपदान भी कहा जाता है। जैन आगम में धनतेरस को ‘धन्य तेरस’ या ‘ध्यान तेरस’ भी कहते हैं।
प्राचीन भारत में धन का वितरण और उपयोग धर्म और नीति के साथ जुड़ा हुआ था। व्यापारी ‘लाभ’ में भी ‘लोक-लाभ’ देखते थे। राजा अपने धन को जनकल्याण, सिंचाई, शिक्षा और सुरक्षा में लगाते थे, किन्तु आधुनिक युग में, विशेषतः पूंजीवादी व्यवस्था के प्रसार के बाद, धन का स्वरूप विकृत हुआ है। धन साधन से लक्ष्य बन गया है। इसके परिणामस्वरूप समाज में शोषण, अमीरी-गरीबी की खाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है। आज एक ओर अरबपतियों की गिनती बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर करोड़ों लोग रोटी और दवा के अभाव में जीवन गुज़ार रहे हैं। धनतेरस का पर्व इस विडंबना पर आत्ममंथन का अवसर है। यह हमें पुकारता है कि हम धन को केवल अपनी तिजोरी का नहीं, बल्कि समाज की समृद्धि का माध्यम बनाएं। लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनियाँ के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। चाँदी शुद्धता की प्रतीक है यही शुद्धता इंसानी जीवन में आए, यही इस पर्व का उद्घोष है।
धनतेरस का सच्चा संदेश यही है-धन के स्वामी बनो, उसके दास नहीं। धन के प्रति सकारात्मक दृष्टि का अर्थ है उसे साधना, सेवा और संस्कार से जोड़ना। आज आवश्यकता है कि हम धन को साझा समृद्धि, सामाजिक उत्तरदायित्व और मानवीय करुणा के उपकरण के रूप में देखें। आज विश्व अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी चुनौती समान अवसरों का अभाव है। धनतेरस का यह अवसर सरकारों को भी यह संदेश देता है कि वे विकास के लिए धन का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करें। राजकोषीय नीतियाँ केवल अमीर वर्ग के लाभ के लिए नहीं, बल्कि गरीबों के सशक्तिकरण एवं कल्याण के लिए हों। धन की प्रवाह प्रणाली में नैतिकता, पारदर्शिता और संवेदना का समावेश आवश्यक है।

आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने भी धन के प्रति एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। उन्होंने भगवान महावीर के आर्थिक दर्शन को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित करते हुए ‘महावीर का अर्थशास्त्र’ नामक एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्पष्ट किया कि धन का अर्जन और उपयोग दोनों ही अहिंसक, नैतिक और संयमित होने चाहिए। धन तभी सार्थक है, जब वह आत्मविकास, समाजकल्याण और न्यायपूर्ण व्यवस्था का साधन बने। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि धन और धर्म का संवाद पुनः स्थापित हो। धर्म के बिना धन अंधा है, और धन के बिना धर्म असहाय। धनतेरस हमें सिखाता है कि धन का अर्जन सत्य मार्ग से हो और उसका उपभोग सेवा मार्ग पर हो। आज जब समाज में धन के कारण विभाजन, भ्रष्टाचार और अन्याय बढ़ रहे हैं, तब धनतेरस हमें प्रेरित करती है-धन को ‘दिव्यता’ में रूपांतरित करने को। यह पर्व हमें पुकारता है कि हम धन के प्रति अपनी दृष्टि बदलें-धन को नकारें नहीं, बल्कि उसे साकार करें; जब धन का प्रवाह धर्म के संग बहता है, तभी सच्चा दीपोत्सव जगमगाता है-अंतर में भी, समाज में भी और मानवता में भी।