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धुआँ-धुआँ है ज़िंदगी

डॉ. संजीदा खानम ‘शाहीन’
जोधपुर (राजस्थान)
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तेरे संचे में ढल रही हूँ मैं।
रफ्ता-रफ्ता पिघल रही हूँ मैं।

तुझको उठता धुआँ दिखे ना दिखे,
पर यह सच है कि जल रही हूँ मैं।

क्यूं ना हैरान होती दीवारें,
दायरों से निकल रही हूँ मैं।

मोड़ तुझको सलाम अब मेरा,
अपना रस्ता बदल रही हूँ मैं।

मुझको कुछ भी खबर नहीं इसकी,
उड़ रही हूँ कि चल रही हूँ मैं।

जब से उचटी है नींद आँखों की,
ख्वाब तेरे मसल रही हूँ मैं।

यह ज़मीं तो अजब है ‘संजीदा’,
हर क़दम पर फिसल रही हूँ मैं॥