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नारी स्वतन्त्रता:मर्यादा बहुत जरूरी

राधा गोयल
नई दिल्ली
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नारी की स्वतंत्रता किस सीमा तक स्वीकार्य…? इस पर कुछ कहने से पहले नारी की स्वतंत्रता के बारे में कुछ कहना चाहूँगी। गृहस्थी रूपी गाड़ी को खींचने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही उसके २ पहिए हैं। यदि दोनों में असमानता होगी तो गाड़ी ठीक तरह से नहीं चलेगी, इसी लिए दोनों का समान होना जरूरी है। यानी जितने अधिकार पुरुष के हैं, उतने ही अधिकार स्त्री के भी हैं। यह बात जरूर है, कि नारी जिस घर के लिए जीवन भर खटती रहती है, उसके नाम की तख्ती तक उस घर के बाहर नहीं होती। इस बात पर एक पुराना गाना याद आ रहा है-“नारी को इस देश ने देवी कहकर दासी माना है, जिसको कुछ अधिकार न हों, उसे घर की रानी माना है।’
पुराने जमाने में पुरुष प्रधान समाज था। कुछ अपवाद छोड़कर पुरुषों की ही मनमर्जी चलती थी। स्त्री केवल उनके लिए भोग्या थी और घर का काम करने की मशीन। पहले घूँघट प्रथा भी थी। लड़के- लड़कियों से अलग तरह का बर्ताव किया जाता था। लड़के कुछ भी करते रहें, लड़कियों के लिए बहुत- सी पाबंदियां थीं। पुरुषों को कभी किसी ने समझाना नहीं चाहा कि उन्हें स्त्रियों से कैसा व्यवहार करना चाहिए। धीरे-धीरे नगरों में साक्षरता आई। लड़कियों ने ऊँचे मुकाम हासिल किए। नारी को बहुत सी स्वतंत्रता भी दी गई। कुछ लड़कियों ने स्वतंत्रता की सीमा नहीं लाँघी, लेकिन कुछ ने हर सीमा को त्याग दिया। पुरुषों से बराबरी करने के चक्कर में घर का कोई काम नहीं सीखा। केवल पढ़ाई, उसके बाद नौकरी और अपना कैरियर। नौकरी करना अच्छी बात है, क्योंकि पहले के पुरुष इसी कारण औरतों को दबाते थे कि वे कुछ कमाती नहीं है और औरतें भी चुपचाप इसलिए सहन करती रहती थीं क्योंकि वे पूरी तरह से पिता, पति या बच्चों पर आश्रित थीं। जमाना बदला, लड़कियाँ इतनी स्वछन्द हो गईं कि अब तो वो लड़कों के भी कान कतरने लगी हैं। रात को देर से आने पर यदि माता-पिता टोकें तो उन्हें यह बर्दाश्त नहीं होता। उनका कहना होता है कि जब बेटे देर से आते हैं क्या उनसे यह सब कुछ पूछा जाता है। यह बात तो ठीक है कि हमें बेटों से भी पूछना चाहिए लेकिन आज लड़कों की बराबरी करने के चक्कर में लड़कियाँ लड़कों जैसे ही कपड़े पहनने लगी हैं। लड़के कम से कम पैंट और कमीज तो पहनते हैं लेकिन लड़कियों ने तो आजकल सारी लाज शर्म ताक पर रख दी है। बहुत छोटी निक्कर और बहुत छोटी टॉप जिसमें शरीर का प्रत्येक अंग दिखाई देता है। कई बार तो मेट्रो में लोगों ने देखा होगा कि लड़कियों ने इतने वाहियात कपड़े पहने होते हैं कि सबकी निगाहें उनकी तरफ घूम जाती हैं। लड़कियाँ सोचती हैं हमें बड़ी तारीफ की निगाहों से देखा जा रहा है। वह नहीं समझ पातीं, यह घूरती निगाहें किसी कामुक व्यक्ति की हैं या अभद्र पोशाक पर नजरें टिकी हैं। वे सोचती है हम बहुत आकर्षक लग रही हैं, इसीलिए सबकी निगाहें हमारे ऊपर टिकी हुई हैं। पारदर्शी पोशाक भी ऐसी जिसमें शरीर का हर अंग नजर आ रहा है। कपड़े ना के बराबर ही पहने होते हैं। इतनी आजादी भी किस काम की। कहते हैं “लज्जा नारी का आभूषण होती है” लेकिन आजकल की लड़कियों में लज्जा का तो नाम-निशान भी नहीं है। सिंदूर, बिंदी, चूड़ियाँ पहनना बिल्कुल ही बंद कर दिया है। इसको वह पुरानी प्रथा कह कर सिरे से ही नकार देती हैं, लेकिन अन्य श्रृंगार खूब करती हैं। पार्लर में जाकर हर महीने खूब पैसे खर्च करती हैं। कहीं जाना हो तो ब्यूटी पार्लर से तैयार होती हैं। यहाँ तक कि आजकल देखा-एक घर में पूजा थी लेकिन घर की स्त्रियाँ सिर पर पल्लू लिए बिना बैठी थीं जबकि आदमियों ने सिर पर रुमाल ढका हुआ था। अरे ठीक है, कि तुम पार्लर से तैयार होकर आई हो और पार्लर वाली ने साड़ी इस तरह से बाँधी है कि तुम उससे सर नहीं ढाँप सकती हो लेकिन यदि २ हजार की साड़ी खरीद सकती हो तो ५००₹ की एक खूबसूरत-सी चुन्नी भी खरीद सकती हो, जिससे कम से कम ऐसे धार्मिक आयोजन पर अपने सिर को थोड़ा-सा ढक सको। कई तो खास मौकों पर भी साड़ी नहीं पहनतीं, जींस और टॉप पहनती हैं।
एक बार तो मैंने अपनी ही रिश्तेदारी में किसी की मृत्यु में एक लड़की को ऐसी पोशाक में देखा कि शर्म से आँखें नीची हो गईं। पारदर्शी टाॅप और कैपरी। चुन्नी का नामो-निशान नहीं। ऐसी पढ़ाई का फायदा क्या है, जो तुम्हें यह संस्कार भी ना सिखा सके कि किसी की मृत्यु में जाओ तो थोड़ा- सा सिर पर आँचल होना चाहिए। उसी आधुनिका के दादा ससुर की मृत्यु हुई। आधुनिका के विवाह को अभी केवल एक माह हुआ था। हम सब उनके शोक में गए। उसके ससुराल में घूँघट का रिवाज था। सबने सिर पर पल्लू लिया हुआ था लेकिन वह विवाहिता बिना सिर ढके पुरुषों की तरफ ही मुँह करके बैठी हुई थी। उसे कई बार टोका कि थोड़ा-सा सिर ढक ले, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ।
यदि हम कहते हैं कि लड़के- लड़कियों के अधिकार बराबर हैं, तो लड़कियों को भी लड़कों की तरह पूरा बदन ढके हुए कपड़े पहनने चाहिए ना कि आधे अधूरे कपड़े। हमने ज्यादातर फिल्मों और विज्ञापनों में भी देखा होगा कि किस तरह से लड़कियों ने बदन उघाड़ू कपड़े पहने होते हैं। माना यह सब उन्हें निर्देशक के कहने पर करना पड़ता है, लेकिन वह उत्तेजक ड्रेस पहनने से मना भी तो कर सकती हैं। यहाँ फिल्मों की बात तो छोड़ो, आमतौर से भी लड़कियाँ आधुनिकता की चकाचौंध में ऐसे वाहियात कपड़े पहनती हैं कि आदिवासी भी लज्जित हो जाएँ। आदिवासियों के पास तो कपड़े के साधन नहीं हैं। वे अपने गुप्तांग पत्तों से ही ढक लेते हैं, लेकिन आजकल की आधुनिकाओं को देखकर लगता है मानो दोबारा से पाषाण युग आ गया है। वो युग, जब वस्त्रों का अविष्कार नहीं हुआ था।
आजकल लड़कियाँ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहना पसंद करने लगी हैं। जिम्मेदारियों से बचने के लिए बच्चे नहीं पैदा करना चाहतीं। गर्भ ठहर जाए तो गर्भपात करवा लेती हैं। एक से मन भरा तो दूसरे से रिश्ता जोड़ लेती हैं। कुछ विवाहिता पति के रहते हुए पर पुरुष से संबंध बनाती हैं। अखबारों में सबने ही ऐसे बहुत से किस्से पढ़े होंगे। जब पति को इस करतूत का पता लगता है तो पत्नी अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या करवा देती है। बच्चे ने अपनी माँ को किसी अन्य पुरुष के साथ रोमांस के उन्मादित पलों में देख लिया हो तो वह बच्चे को भी कत्ल करवाने में पीछे नहीं रहतीं। वो स्वछन्द जीवन जीना चाहती हैं, जहाँ किसी की रोक-टोक न हो। शादी करती भी हैं तो अपनी पसंद से, बिना यह जाने कि कहीं लड़का पहले से ही विवाहित तो नहीं है।
आजकल तो माता-पिता भी इतने आधुनिक हो गए हैं कि वह बच्चों से उनकी पसंद पूछ लेते हैं, लेकिन माँ-बाप इतना ध्यान जरूर रखते हैं कि बच्चे किसी ऐसे जीवनसाथी को न चुनें, जहाँ के रीति रिवाज, खान-पान और परम्पराएं एकदम भिन्न हों। एक परिवार पूर्ण रूप से शाकाहारी दूसरा परिवार पूर्ण रुप से मांसाहारी… जिन्हें बकरे काटने में, किसी की गर्दन काटने में कोई गुरेज ना हो। एक शाकाहारी लड़की कितने दिन ऐसे घर में बिता पाएगी ?
कितनी लड़कियों को देखा होगा कि वह लड़कों के प्रेमजाल में बंध जाती हैं और घर से भागकर शादी कर लेती हैं। शादी के बाद सच्चाई पता लगती है कि जिससे उन्होंने प्रेम किया था, उसी लड़के ने उसे वेश्यावृत्ति में धकेल दिया और पति के अलावा घर के देवर और ससुर भी उसके साथ…।
वैसे भी जो लड़कियाँ घर से भागकर शादी करती हैं, वो न इधर की रहती हैं, न उधर की। न ससुराल वाले स्वीकार करते हैं और न ही मायके वाले, और इस कारण गृहस्थी का जो आवश्यक सामान है, वह नहीं मिल पाता। सबसे संबंध भी खत्म हो जाते हैं। शुरू- शुरू में तो उन्हें प्यार के खुमार में यह सब-कुछ याद नहीं आता। जब खुमार उतरता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। दोनों का अपना जीवन तो बर्बाद होता ही है, लेकिन उनके साथ-साथ दो परिवारों की इज्जत भी दाँव पर लग जाती है।
मैं नारी स्वतंत्रता की बहुत पक्षधर हूँ, मानती हूँ कि नारी को अपनी इच्छा से जीने का अधिकार होना चाहिए। अपने शौक पूरे करने का अधिकार होना चाहिए, लेकिन उसकी कोई सीमा भी होनी चाहिए। नारी को यह याद रखना चाहिए कि घर, सदस्यों के प्रति और अपने बच्चों के प्रति भी उसके कुछ दायित्व हैं। नौकरी करने का मतलब यह नहीं कि वह अपने दायित्वों से भी मुँह मोड़ ले।
स्त्री नौकरी करती है तो सोचती है कि पति बराबर से हाथ बँटाए। पति को भी सहयोग करना चाहिए और कई पति करते भी हैं, लेकिन उस बात के लिए अपने घर में रोजाना की लड़ाई कहाँ तक उचित है? कई बार इन्हीं बातों पर रोजाना झगड़े होते हैं और आखिरकार वे विवाह विच्छेद का कारण बनते हैं। तब औरत के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह विवाह को बचाए रखने के लिए नौकरी छोड़े या पति को छोड़े, या समय प्रबंधन ऐसा करे कि अपने दोनों दायित्व निभा सके। जब ऐसा नहीं कर पाती… क्योंकि आजकल की लड़कियों ने घर का कोई काम सीखा ही नहीं होता, तो उनके पास एक ही विकल्प बचता है… विवाह विच्छेद। फिर नौकरी करते हुए किसी अन्य के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ में रहना क्योंकि शरीर की तृप्ति के लिए कहाँ जाएँगी ? जब उससे मन भर जाएगा, तब किसी अन्य से संबंध बना लेंगी। इस स्वतंत्रता को बहुत घातक समझती हूँ। ऐसी लड़कियों का वैवाहिक जीवन ज्यादा समय तक सुख से नहीं बीतता और जिस विवाहित पुरुष के साथ ‘लिव इन’ में रह रही हैं, उसका घर भी बर्बाद हो रहा है। फिर ये पंक्तियाँ दिल से निकलती हैं-
पंछी का नीड़ बिखर जाए,
उस मुक्त पवन का क्या करना
हमको अपना पनघट प्यारा,
सागर का मंथन क्या करना
अय साम्यवाद के नये स्वरों
मेरा घर मत बर्बाद करो
हमको अपनी ममता प्यारी
मत समता का उन्माद भरो
लज्जा के पहरे में यौवन
हमको अति सुंदर लगता है।
हर पथ में जो टकराए,
उस बांकी चितवन का क्या करना।
पकते जलपान गृहों में हैं
माना षटरस छप्पन व्यंजन,
दुल्हिन की हमें रसोई प्रिय,
उनके व्यंजन का क्या करना।
अति आधुनिकता की होड़ में बहुत-सी नारियाँ लज्जा के आभूषण को धारण करना भूलती जा रही हैं। जिनको याद है, वे नए कीर्तिमान गढ़ रही हैं। ऊँचे-ऊँचे पदों पर शोभायमान हैं। चाहे उनमें हमारी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू हों या पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, सुषमा स्वराज, सुषमा महाजन, स्मृति ईरानी। सभी उच्च पदों पर आसीन लेकिन अपनी मर्यादा को नहीं भूलीं। अपनी संस्कृति को नहीं भूली। उच्च शिक्षा का तात्पर्य यही होता है कि जीवन मूल्य भी उच्च हों। नारी को यह सीमा स्वयं तय करनी होगी कि उसे कितना स्वतंत्र रहना है और कितना मर्यादा में। मर्यादा में रहेगी तो सभी का आदर पाएगी और स्वतंत्रता अपने-आप ही मिल जाएगी। अपने ही जीवन में कई महिलाओं का उदाहरण हमारे सामने है। किसी को ससुराल में जाकर बहुत बंदिशों में रहना पड़ा। अपनी सारी ख्वाहिशों का गला घोटना पड़ा, लेकिन कुछ ही वर्षों में उन्होंने अपने व्यवहार से सबके दिलों में इतनी जगह बना ली, कि सब बड़े-बूढ़े भी उनकी समझदारी की मिसाल देते हैं और उनकी हर बात की अहमियत समझते हैं और उन्हें कहीं भी आने-जाने की और अपना मनचाहा करने की पूरी आजादी है, क्योंकि उन्हें मालूम है वह अपनी सीमा रेखा जानती है।
आजकल की लड़कियों को यह स्वतंत्रता भी चाहिए कि वे अपने मंगेतर के साथ विवाह से पूर्व भी घूमने जाएँ, प्री वेडिंग शूट कराएं। विवश होकर माता-पिता को अनुमति देनी पड़ती है। कोई और चाहे जो भी सोचे, मैं इसके सर्वथा खिलाफ हूँ। थोड़े समय बाद ही प्यार का खुमार उतर जाता है। जिस लड़की ने प्री वेडिंग शूट में दिल खोलकर अपने मंगेतर के साथ शूटिंग की हो, बाद में वो मंगेतर ही पति बनने के बाद कई बार चरित्र के बारे में कुछ कहने से नहीं चूकता, और कहना जायज भी है। जो लड़की एक अजनबी को विवाह से पूर्व अपना सर्वस्व सौंप रही है, हो सकता है वो शादी से पूर्व किसी अन्य की बाँहों में भी रही हो। इस बारे में आधुनिक लड़कियाँ सोचती ही नहीं हैं। माता-पिता विवश हैं क्योंकि ऐसे आधुनिक बच्चे अपनी जिद पर अड़ जाते हैं।आजादी एक सीमा तक ही ठीक है। इसका मतलब उच्छृंखलता नहीं होना चाहिए। मर्यादा में रहना बहुत जरूरी है।