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प्रकृति की चेतावनियों को गंभीरता से लें

ललित गर्ग

दिल्ली
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जलवायु परिवर्तन से उपजी पर्यावरणीय चुनौतियाँ आज मानव सभ्यता के अस्तित्व तक को प्रभावित कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन अब कोई दूर का वैज्ञानिक विचार नहीं, बल्कि तत्काल अनुभव किया जाने वाला यथार्थ है, जिसकी भयावहता का प्रमाण सीएसई और डाउन टू अर्थ की क्लाइमेट इंडिया २०२५ की रिपोर्ट में स्पष्ट दिखाई देता है। जनवरी से सितंबर २०२५ तक भारत ने अपने ९९ प्रतिशत दिनों में किसी न किसी चरम मौसमी घटना-बाढ़, सूखा, भारी बारिश, तूफान, ठंड-लहर, अथवा भीषण गर्मी का सामना किया। इसी अवधि में ४०६४ लोगों की मौत, ९.४७ मिलियन हेक्टेयर फसल का नष्ट होना, लगभग ५८,९८२ जानवरों की मृत्यु और ९९,५३३ घरों का ढहना इस संकट की गहराई को दर्शाते हैं। कृषि क्षेत्र इन घटनाओं का सबसे बड़ा शिकार बना, क्योंकि जलवायु असंतुलन ने खेतों, मौसम चक्र और पैदावार को सीधे प्रभावित किया। बढ़ते तापमान और असामान्य वर्षा ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई है। दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले देश के सामने ये मुश्किलें सबसे बड़ी हैं। हिमाचल प्रदेश में २५७ दिनों का चरम मौसम, मध्य प्रदेश में ५३२ मौतें और महाराष्ट्र में ८४ लाख हेक्टेयर फसल का नुकसान बताता है कि यह सिर्फ पर्यावरणीय विषय नहीं, बल्कि मानव जीवन, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था का संकट है।

भारत में जैसे हालात हैं, वही स्थिति पूरे विश्व में भी फैलती जा रही है। वर्ष २०२३, २४ और २५ दुनिया के सबसे गर्म वर्षों में शामिल रहे। यूरोप की निरंतर हीट वेव, अफ्रीका के साहेल क्षेत्र का अकाल, अमेज़न और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग, प्रशांत और अटलांटिक महासागरों में उग्र तूफान, और ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने की घटनाएँ यह संकेत दे रही हैं कि पृथ्वी एक खतरनाक मोड़ की ओर बढ़ रही है। मौसम चक्रों का असंतुलन, समुद्र स्तर में वृद्धि, तापमान का अचानक बढ़ना और वर्षा का अनियमित होना, प्राकृतिक आपदाओं को न सिर्फ अधिक सघन बना रहा है, बल्कि मानव जीवन को असुरक्षित भी। जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी वजह मनुष्य की अनियंत्रित गतिविधियाँ हैं-जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता, वनों की कटाई, प्रदूषण, अनियोजित शहरीकरण और अत्यधिक उपभोग ने वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों को खतरनाक स्तर तक बढ़ा दिया है, जिसका परिणाम है पृथ्वी का असामान्य रूप से गर्म होना।
इन परिस्थितियों का असर जीवन के हर क्षेत्र पर दिखाई दे रहा है। स्वास्थ्य पर प्रभाव बढ़ रहा है, लू (हीट वेव) के कारण मौतें बढ़ रही हैं, नए विषाणु और प्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों की आवृत्ति बढ़ी है। जल संसाधन खतरे में हैं और कई क्षेत्रों में नदियाँ व भूजल तेजी से सूख रहे हैं। खाद्य संकट गहराता जा रहा है, क्योंकि फसलें असफल हो रही हैं, जिससे अनाज और सब्जियों की कीमतें बढ़ रही हैं। प्राकृतिक आपदाओं से आर्थिक ढाँचा भी डगमगा रहा है, लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं और असमानता तेज़ी से बढ़ रही है। यदि दुनिया ने तापमान को १.५ डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य पूरा नहीं किया, तो आने वाले ३ दशकों में हिमालयी नदियों का प्रवाह अनिश्चित हो जाएगा, तटीय शहर खतरे में पड़ेंगे और मानव जीवन मुश्किल होता चला जाएगा।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को दर्शाती एक ओर रिपोर्ट पिछले दिनों ‘द लांसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज २०२५’ के अनुसार पिछले साल जलवायु परिर्वतन के कारकों से कृषि क्षेत्र में ६६ फीसदी और निर्माण क्षेत्र में २० फीसदी का नुकसान हुआ। यह इशारा है कि अत्यधिक गर्मी के कारण श्रम क्षमता में कमी के कारण १९४ अरब डॉलर की संभावित आय का नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि साल २०२० से २४ के बीच भारत में औसतन हर साल १० हजार मौतें जंगल की आग से उत्पन्न पीएम २.५ प्रदूषण से जुड़ी थीं। चिंता की बात यह है, कि यह वृद्धि २००३ से १२ की तुलना में २८ फीसदी अधिक है, जो हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।
विडंबना यह है कि गंभीर तथ्यों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस संकट से मिलकर जूझने की ईमानदार कोशिश होती नजर नहीं आती। यह निर्विवाद तथ्य है कि दुनिया के विकसित देश अपनी जिम्मेदारी से लगातार बचने के प्रयास कर रहे हैं। खासकर हाल के वर्षों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन को लेकर जो गैरजिम्मेदाराना रवैया अख्तियार किया है, उससे नहीं लगता कि वैश्विक स्तर पर इस संकट से निपटने की कोई गंभीर साझा पहल निकट भविष्य में सिरे चढ़ेगी। विकसित देश इस दिशा में मानक पेरिस समझौते की संस्तुतियों को नजरअंदाज करते नजर आते हैं। इन रिपोर्टों में उजागर तथ्य हमारी आँख खोलने वाले व सचेतक हैं। रिपोर्ट एक आवश्यक चेतावनी है और बिना निर्णायक शमन प्रयासों के आज की आपदाएं कल का नया सामान्य बन जाएंगी। ऐसे समय में सिर्फ सरकारों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि हर आम नागरिक को भी पर्यावरण संरक्षण का सहभागी बनना होगा। सबसे पहले जीवनशैली को प्रकृति के अनुकूल बनाना जरूरी है, ऊर्जा की बचत, जल का सीमित और विवेकपूर्ण उपयोग, प्लास्टिक का परित्याग, वृक्षारोपण, जैविक कचरे का पृथक्करण और पुनर्चक्रण जैसी छोटी गतिविधियाँ बड़े परिणाम ला सकती हैं। घरेलू स्तर पर सौर ऊर्जा, वर्षा जल संचयन, रसोई कचरे से खाद बनाना और अनावश्यक उपभोग कम करना पर्यावरण पर सकारात्मक असर डालते हैं। वाहन का कम उपयोग, सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता, पैदल चलने और साइकिल जैसे पर्यावरण-मित्र विकल्प अपनाना जलवायु परिवर्तन से लड़ने की दिशा में शक्तिशाली कदम हैं।
पर्यावरणीय संवेदनशीलता भी उतनी ही आवश्यक है जितनी तकनीकी कोशिशें। प्रकृति के प्रति सम्मान की भावना, संसाधनों का संयमित उपयोग, और भविष्य की पीढ़ियों के लिए पृथ्वी को सुरक्षित रखने की दृष्टि, जलवायु संकट के खिलाफ हमारी सामूहिक ताकत बन सकती है। यदि समाज में यह चेतना विकसित हो कि प्रकृति का संरक्षण ही जीवन और प्रगति का आधार है, तो परिवर्तन स्वतः शुरू हो जाता है। शिक्षा, जागरूकता और जनभागीदारी इस लड़ाई के सबसे महत्वपूर्ण हथियार हैं। शालाओं और घरों में बच्चों को पर्यावरणीय मूल्यों का प्रशिक्षण देना भविष्य के लिए अत्यंत उपयोगी होगा। जलवायु संकट अपने आप नहीं थमेगा; इसे रोकने के लिए संकल्प, संयुक्त प्रयास और सतत विकास को जीवन की प्राथमिकता बनाना आवश्यक है। पृथ्वी हमारे पास केवल एक है और उसका कोई विकल्प नहीं। समय का यही संदेश है कि यदि हम प्रकृति की चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो आने वाला समय मानवता के लिए और भी कठिन हो जाएगा।