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प्रकृति की नाराजगी समझिए, वरना…

ललित गर्ग

दिल्ली
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प्रकृति अपनी उदारता में जितनी समृद्ध है, अपनी प्रतिशोधी प्रवृत्ति में उतनी ही कठोर है। जब तक मनुष्य उसके साथ ताल-मेल में रहता है, तब तक वह जल, जंगल और जमीन के रूप में वरदान देती है,

लेकिन जैसे ही मनुष्य अपनी स्वार्थपूर्ण महत्वाकांक्षाओं और तथाकथित आधुनिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति की उपेक्षा करने लगता है, यही विनाश का रूप धारण कर लेती है। आज पूरे भारत में जो बाढ़, जल प्रलय और मौसम के अनियंत्रित बदलाव के दृश्य दिखाई दे रहे हैं, वे केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि हमारी गलतियों के सीधे परिणाम हैं। प्रकृति के इस रौद्र रूप के पीछे महज संयोग या ‘कुदरत की नाराज़गी’ को जिम्मेदार ठहराना पर्याप्त नहीं है। यह आपदाएं सीधे-सीधे जलवायु परिवर्तन, वनों की अंधाधुंध कटाई और अनियंत्रित विकास प्रारूप का परिणाम हैं। पहाड़ों का पारिस्थितिकी तंत्र अत्यंत संवेदनशील होता है, लेकिन नीति निर्माताओं ने पहाड़ों के विकास को मैदानी प्रारूप पर ढालने की कोशिश की। बड़े-बड़े होटल, अव्यवस्थित सड़कें, बांध, खनन और निर्माण ने पहाड़ों की नाजुक संरचना को हिला दिया। जब जंगल काटे जाते हैं, तो वर्षा का पानी भूमि में समाने के बजाय सीधे तेज धाराओं के रूप में बहने लगता है। यही बाढ़ और भू-स्खलन का बड़ा कारण बनता है, इसी से भारी तबाही का मंजर देखने को मिल रहा है। देश के बड़े हिस्से में जन-जीवन अस्त-व्यस्त है, जान-माल का नुकसान भी बड़ा हुआ है, भारी आर्थिक नुकसान ने घना अंधेरा बिखेर दिया है। चारों ओर चिन्ताओं एवं परेशानियों के बादल मंडरा रहे हैं।
आज का जल प्रलय केवल पानी का उफान नहीं, बल्कि हमारी गलतियों का आइना है। यह प्रकृति का प्रतिशोध है, चेतावनी है कि यदि अब भी नहीं चेते तो भविष्य और भी विकराल होगा। महात्मा गांधी ने कहा था-“प्रकृति हर किसी की आवश्यकता पूरी कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को नहीं।” यही सच्चाई है। यदि हमने संतुलन नहीं सीखा, तो यह विनाशकारी दृश्य आने वाले वर्षों में और भयावह होंगे। यदि हमने चेतावनी को अवसर माना, तो प्रकृति फिर से माँ की तरह हमें संभाल लेगी। जीवनदायी पानी जब विकराल रूप में सामने आता है तो उसका प्रकोप कितना घातक और विनाशकारी हो सकता है, यह बादल फटने की घटनाओं ने फिर सिद्ध कर दिया है। बादल फटने की अप्रत्याशित घटनाएं, टूटते हिमखंड, अचानक बहते मलबे और बेकाबू नदियों का सैलाब-ये सब मिलकर भयावह परिदृश्य खड़ा कर रहे हैं।
वनों की कटाई ने न केवल भूमि की जलधारण क्षमता घटाई है, बल्कि स्थानीय जलवायु चक्र को भी प्रभावित किया है। वैश्विक ताप के कारण तापमान बढ़ा है, जिससे पहाड़ी इलाकों में हिमखंड तेजी से पिघल रहे हैं और अप्रत्याशित समय पर अत्यधिक वर्षा हो रही है। यही कारण है कि बादल फटने जैसी घटनाएं कई गुना बढ़ गई हैं। दरअसल, समस्या का मूल यह है कि हमने विकास की परिभाषा को केवल कांक्रीट और मशीनों से जोड़ दिया है। पर्यावरणीय संतुलन और पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता को दरकिनार कर योजनाएं बनाई गईं। इसी का परिणाम है कि जब आपदा आती है तो न तो हमारी चेतावनी प्रणाली पर्याप्त साबित होती है और न ही प्रशासन की तैयारियाँ।
भारत की नदियाँ कभी जीवन का स्रोत मानी जाती थीं। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, गोदावरी जैसी नदियों के किनारे सभ्यताएँ पली-बढ़ीं, पर आज वही नदियाँ मौत का पैगाम बनकर आती हैं। कारण है उनके प्राकृतिक प्रवाह में मानवीय हस्तक्षेप-बेतरतीब बांध, अतिक्रमण, नालों में बदल चुकी धारा और किनारों पर बसी बस्तियाँ। भारत में हर साल औसतन १६०० लोग बाढ़ से मारे जाते हैं और लगभग ७५ लाख लोग प्रभावित होते हैं। फसलें तबाह होती हैं, पशुधन मरता है और अरबों रुपए की आर्थिक क्षति होती है। केवल २०२३ में उत्तराखंड, हिमाचल और दिल्ली में आई बाढ़ से ६० हजार करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान हुआ। केदारनाथ त्रासदी (२०१३) ने पहाड़ों में अंधाधुंध निर्माण की पोल खोल दी। २०२३ में दिल्ली में यमुना का ४५ साल का कीर्तिमान टूटना इस बात का संकेत है कि शहर जलवायु परिवर्तन और अव्यवस्थित शहरीकरण के सामने पूरी तरह असुरक्षित हैं।
देश के लगभग हर हिस्से में जल प्रलय की कहानियाँ देखी जा सकती हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में पहाड़ टूट रहे हैं। बिहार और असम में बाढ़ हर साल लाखों लोगों को बेघर कर देती है। दिल्ली और मुम्बई जैसे आधुनिक महानगर भी जल-जमाव से पंगु हो जाते हैं। राजस्थान जैसे रेगिस्तानी राज्य में भी अनियंत्रित बारिश और बाढ़ का नया खतरा मंडरा रहा है। सड़कों पर नावें चल रही हैं, पुल बह गए हैं, खेत-खलिहान जलमग्न हैं। यह नजारा केवल विनाश का नहीं, बल्कि नासमझी का प्रमाण है। प्रकृति बार-बार संकेत देती है कि संतुलन ही जीवन का आधार है, पर हमने उसकी सीमाओं को लांघ दिया है। पहाड़ों को खोखला कर सुरंगें और सड़कें बनाई गईं। जंगलों को काटकर कांक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए। नदियों को उनके मार्ग से हटाकर कृत्रिम रास्तों में बांध दिया गया।
अब सवाल यह है कि इस संकट से निपटें कैसे ? केवल राहत और मुआवजा देना समाधान नहीं है। आवश्यकता है दीर्घकालिक और ठोस कदम उठाने की। हमें जंगल बचाने होंगे, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बहाल करना होगा, शहरी योजनाओं में जल-निकासी और हरियाली को महत्व देना होगा, पर्वतीय विकास में संयम लाना होगा और सबसे बढ़कर जन-जागरूकता फैलानी होगी, ताकि लोग समझ सकें कि पर्यावरण की रक्षा ही उनके जीवन की रक्षा है। जरूरत है कि आपदाओं को केवल ‘प्राकृतिक’ न मानकर उन्हें ‘मानव निर्मित’ एवं ‘सरकार की गलत नीतियों की आपदाएं’ भी समझा जाए। इसका अर्थ है कि इनका समाधान दीर्घकालिक रणनीति से जुड़ा होना चाहिए। विशेषज्ञों की राय, वैज्ञानिक अध्ययन और स्थानीय समुदायों के अनुभवों को मिलाकर ऐसी नीतियाँ बननी चाहिए, जो पहाड़ों की पारिस्थितिकी को ध्यान में रखें। पूर्व चेतावनी प्रणाली को सशक्त बनाना, पहाड़ी राज्यों के बीच आपसी समन्वय बढ़ाना, आपदा प्रबंधन तंत्र को त्वरित प्रभावी बनाना और सबसे बढ़कर-वनों एवं प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना, यह सब आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भारत प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली भारी जन-धन हानि को बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिए विकास की नीतियों को पर्यावरण की दृष्टि से पुनर्परिभाषित करना ही इस संकट से उबरने का वास्तविक मार्ग है।