डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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दीप जलें, मन महके (दीपावली विशेष)…
जिस पथ से गए समर शेष में,
उस रज का तिलक लगाऊंगी
प्रिय स्मृतियों में तेरे…
मिलकर मैं दीप जलाऊंगी।
उस दिन निशीथ की बेला में,
जब जल उठे थे,दीप सुनहरे
गगन अभी कुछ लोहित ही था,
पवन अभी कुछ मोहित ही था
आलिंगन से चहका ये तन था,
मधुर प्रेम में बहका ये मन था
झिलमिल चादर की, परतों में लिपटी,
अवनी-अम्बर का, अद्भुत संगम था,
तत्क्षण बज उठी, रणक्षेत्र में धूनी
प्रिय तुम जाओ, माँ की गोद है सूनी,
शहादत पर तेरे हृदय प्रिय…
रण-पथ पर मैं मिट जाऊंगी।
प्रिय, स्मृतियों में तेरे,
मिलकर मैं दीप जलाऊंगी…॥
भर रहे थे वीरों के श्वांसों में,
पक्षी प्रतिक्षण ओजस के स्वर
मकरंद सुधा की बूँदों को,
करती तितलियाँ सहृदय अर्पण
जलते शूरों के तन-मन को,
करते झरने शीतल मंद-मंद…
बही थी जिस पथ से लहू धारा,
तजे थे जिस स्थल पर प्रण-रण
जलेगा हिम शिखरों का कण-कण
सजेगा नदियों के, सुंदर तट-वन,
पंक्ति-पंक्ति में, तिनके-तिनके को
सजदा कर दीप जलाऊंगी,
आलिंगन कर तेरा सर्वप्रिय…
फिर से मैं मांग सजाऊंगी।
स्मृतियों में तेरे प्रिय,
मिलकर मैं दीप जलाऊंगी…॥