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बिहार: राहुल गांधी की नाकाम राजनीति का भी द्योतक ‘तेजस्वी’

ललित गर्ग

दिल्ली
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बिहार विधानसभा चुनाव में सतरंगी रंग देखने को मिल रहे हैं।आखिर उस घोषणा का रंग भी देखने को मिल ही गया, जिसका सबको इंतज़ार था। आखिरकार तेजस्वी यादव को महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया गया है। यह निर्णय ‘देर आए, दुरुस्त आए’ की कहावत को चरितार्थ करता है। लंबे समय से इस पर राजनीतिक अटकलें लगाई जा रही थीं, कि कांग्रेस क्या तेजस्वी के नेतृत्व को खुले तौर पर स्वीकार करेगी या नहीं ? अंततः उसने तेजस्वी पर भरोसा जताया, पर यह मजबूरी भरी स्वीकृति भी लगती है, न कि उत्साहपूर्ण गठबंधन की रचनात्मक एकजुटता। इसी के साथ विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख मुकेश सहनी को उप-मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया गया। इस घोषणा से पता चलता है कि बिहार में कांग्रेस की स्थिति मजबूत नहीं है, उसने मुख्यमंत्री का चेहरा अनिच्छा से ही उजागर नहीं किया था। इस अनिच्छा से यही झलका कि कांग्रेस अभी भी गठबंधन राजनीति के धर्म का मर्म समझने में उलझी है, यह राहुल गांधी की नाकाम राजनीति का भी द्योतक है, ऐसे मामलों में वे अपरिपक्वता का ही परिचय देते रहे हैं।

क्या कांग्रेस ऐसा कुछ मानकर चल रही थी कि महागठबंधन के जीतने की सूरत में तेजस्वी यादव के अतिरिक्त अन्य कोई मुख्यमंत्री का दावेदार हो सकता है ? उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि वह बिहार में अपनी राजनीतिक महत्ता बनाए रखने के लिए राजद पर ही निर्भर है। उसकी ऐसी ही निर्भरता अन्य राज्यों में भी वहाँ के क्षेत्रीय दलों पर है। जब तक वह अपने बलबूते चुनाव लड़ने की सामर्थ्य नहीं जुटा लेती, तब तक उसे उन्हें दबाव में लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। उसके पास न प्रभावशाली चेहरा है, न जनाधार। हाल के चुनावों में उसका प्रदर्शन लगातार निराशाजनक रहा है। ऐसे में कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं था कि वह नेतृत्व की भूमिका की बजाय सहयोगी भूमिका निभाए। तेजस्वी यादव के रूप में राजद आज बिहार में विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत है। यह भी एक वास्तविकता है, कि जिस तरह से नीतीश कुमार का जनाधार खिसक रहा है, तेजस्वी उस रिक्त स्थान को भरने की क्षमता रखते हैं। तेजस्वी यादव ने पिछले कुछ वर्षों में अपने नेतृत्व को निखारा है। उन्होंने ‘नौकरी, विकास और सम्मान’ जैसे मुद्दों को अपने राजनीतिक विमर्श का केंद्र बनाया है। उनकी भाषा में युवाओं की बेचैनी, बेरोज़गारी का दर्द और अवसरों की तलाश झलकती है। बिहार के युवा अब जातिय राजनीति से ऊपर उठकर रोज़गार और जीवन की गुणवत्ता के सवाल पूछने लगे हैं, और तेजस्वी इन्हीं सवालों को अपनी ताकत बना रहे हैं। हाल के वर्षों में उनके तेवर में जो परिपक्वता आई है, वह बताती है कि वे अब सिर्फ ‘लालू के पुत्र’ नहीं, बल्कि स्वयं का राजनीतिक ब्रांड बन चुके हैं। उनका ‘जनादेश’ अब सिर्फ परंपरा या पारिवारिक विरासत पर आधारित नहीं है, बल्कि नये बिहार की आकांक्षाओं से जुड़ने की कोशिश है।
एनडीए ने पहले ही अपने पत्ते खोल दिए थे और सीट बंटवारे की घोषणा कर दी थी, लेकिन किसी एक चेहरे को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं किया है। यह एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि पिछले २ दशक से नीतीश कुमार ही एनडीए का चेहरा रहे हैं। महागठबंधन ने तेजस्वी को सीएम उम्मीदवार बनाकर एनडीए पर दबाव बनाने की कोशिश की है। यह चुनाव बिहार के लिए बहुत महत्वपूर्ण एवं दिलचस्प है और इसमें वादों का दौर भी जारी है।
ताजा परिदृश्यों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के विकास की राजनीति ही बढ़त बनाए हुए है। भाजपा ने बिहार में धीरे-धीरे अपना जनाधार बढ़ाया है, अब भी वह स्वतंत्र चुनाव न लड़कर क्षेत्रीय दलों के सहारे आगे बढ़ रही है। भले ही नीतीश कुमार, जिन्होंने वर्षों तक ‘सुशासन बाबू’ की छवि से राजनीति की, अब थके हुए और अविश्वसनीय से प्रतीत होने लगे हैं। बार-बार गठबंधन बदलने, राजनीतिक अवसरवाद और प्रशासनिक निष्क्रियता ने उनकी साख को गहरी चोट पहुंचाई है। जनता अब बदलाव चाहती है। यदि यह बदलाव तेजस्वी के नेतृत्व में संभव होता है तो यह केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि राजनीतिक पीढ़ी परिवर्तन भी होगा। हालांकि तेजस्वी के चेहरे पर सहमति एक सकारात्मक संकेत है, लेकिन यह गठबंधन की एकजुटता की गारंटी नहीं। भाजपा-जेडीयू गठबंधन अब भी मजबूत स्थिति में है। इसके अलावा, तेजस्वी को छवि सुधार और जनसंपर्क के नए मॉडल पर भी काम करना होगा-भ्रष्टाचार, परिवारवाद और अस्थिरता के पुराने आरोपों से वे अब भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुए हैं। अगर वे इस बार भी भावनाओं की राजनीति पर अटके रहे, तो जनता का भरोसा खिसक सकता है।
कांग्रेस का झुकना केवल राजनीतिक गणित नहीं, बल्कि यह स्वीकारोक्ति है कि अब बिहार में नई पीढ़ी के नेतृत्व से ही राजनीतिक भविष्य तय होगा। तेजस्वी यादव का उदय केवल एक व्यक्ति की उपलब्धि नहीं है, बल्कि बदलते समय की पुकार है। मुकेश सहनी को जिस तरह आगे लाया गया, उससे उनकी राजनीतिक हैसियत का अनुमान लगता है, लेकिन उनकी पार्टी तो महज १५ सीटों पर चुनाव लड़ रही है और कांग्रेस उससे चार गुने से अधिक सीटों पर। हालांकि अशोक गहलोत ने यह स्पष्ट किया है कि और भी उप-मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे, पर इससे यह संदेश ओझल नहीं होता कि कांग्रेस की राजनीतिक ताकत वीआइपी से भी कम है। इस महागठबंधन की राजनीति चुनाव होने एवं चुनाव परिणाम के बाद भी कई रंग बदलेगी, इसलिए उसकी डगर निष्कंटक तो नहीं कही जा सकती। महागठबंधन के जीतने की सूरत में तेजस्वी यादव के अतिरिक्त अन्य कोई मुख्यमंत्री का दावेदार हो सकता है, यह भी प्रश्न तैरता रहेगा।