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मानसिक बदलाव का सशक्त माध्यम बने शिक्षा

ललित गर्ग

दिल्ली
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पढ़ाई सिर्फ एक व्यक्ति का काम नहीं होना चाहिए। शिक्षक आपस में मिलकर अनुभव साझा करें, नई तकनीकें अपनाएं और मिलकर शिक्षा प्रणाली को और मजबूत बनाएं। इस तरह शिक्षक न सिर्फ अपने पेशे में संतुष्ट रहेंगे, बल्कि छात्रों को भी बेहतर शिक्षा मिल सकेगी। संदेश यही है कि शिक्षा को सुधारने के लिए शिक्षण को व्यक्तिगत प्रयास से ऊपर उठाकर साझेदारी और सहयोग का पेशा बनाना होगा। जब शिक्षक मिलकर विचार साझा करेंगे और जिम्मेदारियां बांटेंगे, तभी शिक्षा अधिक प्रभावी और प्रेरक बन पाएगी। शिक्षक सिर्फ ज्ञान देने वाले नहीं होते, बल्कि वे समाज में नवाचार, समानता और परिवर्तन के बीज बोते हैं। वे बच्चों को सपने देखने और उन्हें पूरा करने का साहस सिखाते हैं, शिक्षक ही दुनिया में शांति एवं सह-जीवन का प्रभावी सन्देश दे सकते हैं। शिक्षक को पर्याप्त सम्मान, सहयोग और अवसर मिलें तो शिक्षा के माध्यम से एक आदर्श समाज-व्यवस्था एवं शांति की विश्व-संरचना स्थापित की जा सकती है। यह केवल एक औपचारिकता या शिक्षकों का अभिनंदन करने का अवसर भर नहीं है, बल्कि यह अवसर है शिक्षा की दिशा और दशा को लेकर गहन चिंतन करने का। यह अवसर है यह विचारने का कि आज शिक्षा क्या दे रही है और क्या उसे देना चाहिए। यह अवसर है यह पूछने का कि आज की शिक्षा व्यवस्था केवल नौकरी, व्यवसाय और उपभोग की भूख को बढ़ाने का साधन क्यों बन गई है, क्यों उसमें जीवन मूल्य, नैतिकता, शांति, सह-अस्तित्व और अहिंसा जैसे आधारभूत तत्व लुप्त होते जा रहे हैं। यदि शिक्षा का ध्येय केवल ज्ञानार्जन या रोजगार प्राप्ति है तो वह अधूरी है। शिक्षा का परम ध्येय है-मनुष्य को मनुष्य बनाना, उसे सह-अस्तित्व, अमन और अयुद्ध की स्थितियों के प्रति उन्मुख करना।

आज दुनिया भय, हिंसा, युद्ध और तनाव के घेरे में है। तकनीक और विज्ञान ने सुविधाएं दी हैं, लेकिन उसके साथ शस्त्र-प्रतिस्पर्धा, परमाणु हथियारों का अंबार, और हिंसक प्रवृत्तियां भी दी हैं। इस भयावह परिदृश्य में शिक्षा का दायित्व केवल पाठ्य पुस्तकों तक सीमित नहीं रह सकता। शिक्षा को एक आंदोलन, एक वैश्विक अभियान बनना होगा, जो शांति, अहिंसा और अयुद्ध की भावना को संस्कार के रूप में हर हृदय में स्थापित करे। आज की शिक्षा व्यवस्था पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित होकर स्पर्धा, लाभ और अहंकार की मानसिकता पैदा कर रही है। बच्चे विद्यालय और महाविद्यालय में उपाधि तो प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन उनके भीतर करुणा, दया, सत्य, मैत्री और सहयोग जैसे गुणों का विकास नहीं हो रहा। समाज का ढांचा शिक्षा से निर्मित होता है, यदि शिक्षा अधूरी है तो समाज भी अधूरा रहेगा। अतः एक ऐसी नई शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है, जिसमें विज्ञान और तकनीक के साथ-साथ अध्यात्म और नैतिकता का संगम हो, जिसमें ‘आत्मा की आवाज़’ सुनी जा सके, जिसमें शिक्षा केवल बुद्धि का पोषण न होकर हृदय और संवेदनशीलता का भी निर्माण करे।
मानवता का सबसे बड़ा संकट युद्ध और हिंसा है। शिक्षा का कार्य है इस युद्ध-मानसिकता को बदलना। शिक्षा को बच्चों और युवाओं के मन में यह स्थापित करना होगा कि शक्ति का वास्तविक स्वरूप हिंसा में नहीं, बल्कि अहिंसा में है। युद्ध में नहीं, बल्कि शांति में है। महात्मा गांधी ने कहा था-“यदि हमें शांति चाहिए तो हमें बच्चों को शांति की शिक्षा देनी होगी।” शिक्षक स्वयं शांति के प्रतीक हों, वे अपने आचरण और जीवन से यह संदेश दें कि संघर्ष का समाधान हथियारों से नहीं, संवाद और सहमति से होता है।
शिक्षा को केवल सरकारी योजनाओं या संस्थागत ढांचे पर नहीं छोड़ देना चाहिए। इसे एक आंदोलन के रूप में चलाने की आवश्यकता है। यह आंदोलन अहिंसा का शिक्षण कराए, संवाद की संस्कृति विकसित करे, मानवता को जाति-धर्म और राष्ट्र की सीमाओं से परे प्राथमिकता दे, पर्यावरण और प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता पैदा करे और सहयोग की भावना को प्रोत्साहित करे। यह आंदोलन तभी सफल होगा जब शिक्षक अपनी भूमिका को समझेंगे और केवल ज्ञान देने वाले नहीं, बल्कि जीवन की दिशा दिखाने वाले बनेंगे। वे दीपक की तरह स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाश दें। उनके व्यक्तित्व में सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, करुणा और सेवा का भाव झलके। शिक्षक पाठ्यक्रम न पढ़ाए, बल्कि जीवन पढ़ाए। एक विचारक ने कहा है-“शिक्षक वह नहीं है जो तुम्हें तथ्यों का ज्ञान कराए, बल्कि वह है जो तुम्हें सोचने के लिए प्रेरित करे।” इसके लिए केवल शिक्षा-क्रांति ही नहीं, बल्कि शिक्षक-क्रांति अपेक्षित है।
आज आवश्यकता है कि शिक्षक बच्चों के हृदय को छूने वाले बनें, वे केवल भविष्य बनाने की चिंता न करें, बल्कि चरित्र बनाने का प्रयास करें। शिक्षा रोजगारपरक ही नहीं, जीवनपरक हो। यदि दुनिया में शांति चाहिए, तो हमें शिक्षा की दिशा बदलनी होगी। शांति और अहिंसा के बीज बचपन में बोने होंगे। अयुद्ध की स्थितियाँ केवल समझौते से नहीं, बल्कि संस्कार से पैदा होती हैं। शिक्षा को संस्कार की धारा बनना होगा। नए युग की शिक्षा व्यवस्था को यह संकल्प लेना होगा कि वह ऐसे मनुष्य तैयार करेगी जो भौतिक समृद्धि में ही नहीं, आध्यात्मिक ऊँचाई में भी आगे हों। बस छात्रों की बात नहीं है, यह समूची मानवता का प्रश्न है। शिक्षा को यदि हम सही दिशा देंगे तो यह दुनिया स्वर्ग बन सकती है। यदि गलत दिशा देंगे तो यह नर्क में बदल सकती है। आज आवश्यकता है एक वैश्विक शिक्षा-आंदोलन के साथ-साथ शिक्षक-आन्दोलन की, जिसमें हर राष्ट्र, हर समाज और हर व्यक्ति की भागीदारी हो। नई शिक्षा व्यवस्था वही होगी जो युद्ध की संस्कृति को बदलकर शांति की संस्कृति स्थापित करे, हिंसा की प्रवृत्तियों को बदलकर अहिंसा की चेतना जगाए, और सहयोग को जीवन का मूल मंत्र बनाए।