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‘विद्या’ को वास्तविकता और नैतिकता से जोड़ना आवश्यक

धर्मेंद्र शर्मा उपाध्याय
सिरमौर (हिमाचल प्रदेश)
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शास्त्रों में वर्णित वाक्य के अनुसार विद्याधन सब धनों में श्रेष्ठ है। सही कहा गया है कि अन्य धन चुराए जा सकते हैं, परंतु विद्या धन को कोई नहीं चुरा सकता। आज के बदलते आधुनिक परिवेश में विद्या धन भी डिग्रियों तक सीमित हो गया है। आज के छात्र केवल अंकों को प्राप्त करने की होड़ में लगे हैं। उसके मूल उद्देश्य को छोड़ समाज में अधिक अंक प्राप्त प्रतिष्ठा ने सत्य-ज्ञान से दूर कर व्यक्ति को खोखला कर दिया है। अरस्तु ने एथेंस को ज्ञान की वास्तविकता से जोड़ा और कुछ समय बाद यह कर दिखाया कि एथेंस वैज्ञानिकों , दार्शनिकों की भूमि बन गई। यदि आपका ज्ञान वास्तविकता रहित है तो वह निरर्थक है। व्यक्ति जितने प्रकार की विद्याएं प्राप्त करेगा, समाज में उतनी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
आज के आधुनिक युग में तकनीकी विद्या प्राप्त करना बहुत आवश्यक हो गया है। हर विषय सीखने की अपनी अलग शिक्षा व विद्या है, जिसे हम अभ्यास व सतत प्रयास या गुरु शिष्य परंपरा से प्राप्त कर सकते हैं। यदि यही शिक्षा वास्तविकता और सत्यता को स्वीकार कर केवल डिग्री प्राप्त करने तक सीमित न रहे, तो आने वाली पीढ़ी एक नए भारत का निर्माण कर सकती है। विद्याएं मुख्यत: ९ प्रकार की बताई गई हैं, पर एक व्यावहारिक पक्ष में विद्या वही सार्थक है जो आपमें कोई सभ्य, संस्कृत गुण विकसित करे। चाहे वह सामाजिक क्षेत्र, संगीत क्षेत्र, तकनीकी क्षेत्र हो या राजनीतिक क्षेत्र। व्यक्ति के पास यदि ऐसी विद्या है, जो सत्य और वास्तविकता के साथ प्राप्त की गई है तो उसका जीवन सुखमय बन सकता है ।

व्यक्ति का व्यवहार ही उसकी विद्या प्राप्ति से परिचय करवा देता है। विनम्रता विद्या का मुख्य गुण है और अभिमान सबसे बड़ा दुर्गुण। विद्यावान व्यक्ति हर जगह, हर देश में सम्मानित होता है। विद्या केवल अक्षर ज्ञान तक सीमित न होकर सत्य एवं नैतिक मूल्यों के साथ प्राप्त की जाए, तभी एक सुदृढ़ समाज का निर्माण किया जा सकता है। आज सही रूप से एक सशक्त जीवन निर्माण करने के लिए विद्या को केवल अंक प्राप्त करने की संतुष्टि तक न रखकर वास्तविकता और नैतिकता से जोड़ना आवश्यक है, तभी इस वाक्य की पूर्ति समझी जा सकती है।