डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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हम सब नेति-नेति के जाप के धागे से बंधकर उसी डोर के सहारे इस दूसरे पुष्प में ईश्वर की खोज की ओर बढ़ रहे हैं। उसी कड़ी में मेरे आराध्य प्रभु श्रीराम की जो अंतस्थ प्रेरणा मिली, वे शब्दसुमन आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ॥
यह कितने आश्चर्य की बात है, कि जिस वाल्या मछुआरे को ‘राम’ शब्द का उच्चारण भी करना नहीं आता था, वही आगे जाकर वाल्मिकी मुनि हुए। समस्त विश्व के प्रथम महाकाव्य के रूप में जिसे यह गौरव प्राप्त है, वह २४ हजार संस्कृत श्लोकों से सजा पूजनीय काव्य ग्रंथ ‘वाल्मिकी रामायण’ उन्हीं वाल्मीकि महर्षि के हाथों द्वारा रचा जाए, यह सब-कुछ अतर्क्य, अद्भुत, असंभव और अकल्पित ही प्रतीत होता है! श्रीरामजी की कृपा-दृष्टि हो तो पत्थर भी तैरने लगते हैं, फिर मानव की कौन कहे!
एक निषाद द्वारा प्रणयमग्न क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से १ की हत्या होने पर विरहाग्नि में तड़प रहे दूसरे क्रौंच पक्षी की प्राणान्तिक यातनाओं को देख कोमल हृदयी वाल्मीकि मुनि के हृदय में उपजी असीम पीड़ा, संवेदना एवं सहानुभूति की भावना-लहरें उनकी लयबद्ध वाणी में प्रकट हुई। यही था वाल्मिकी रामायण उगम, वह प्रसिद्ध प्रथम श्लोक (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥)।
हमें यह आभास होता है कि, एक राजसी परिवार की कथा होते हुए भी यह करूण रस रामायण के समस्त काव्य का स्थायीभाव है। यह एक महाकाव्य है, इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि, यहाँ नवरसों के सारे काव्य कलश अपने पूर्ण सौंदर्य समेत पाठकों को रसास्वाद लेने को आमंत्रित करते हैं। माता, पिता, बंधु एवं पत्नी वियोग का तीव्र दुःख तथा चरम सीमा को लाँघती हुई वेदना का सामना करते हुए भी अविचल हिमालय और गहन-गंभीर महासागर के समान श्रीराम ने कर्तव्य, वचनपूर्ति और राजधर्म को अपने जीवन में हर क्षण सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया। उज्जवल कीर्तिमान सूर्यवंश के प्रखर प्रकाशपुंज हैं प्रभु श्रीराम, जिनके नाम का साक्षात् प्रतिरूप होने के कारण ही ‘वचन’ शब्द कीर्तिमान हुआ। “रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई” ये रघु श्रीराम के पूर्वज इतने महनीय थे कि, सूर्यवंश को उनके नाम से जाना जाने लगा। इस उक्ति का अर्थ है, “रघुकुल परम्परा में हमेशा वचनों को प्राणों से ज्यादा महत्व दिया गया है।” यह जाज्वल्य प्रतिज्ञा जिनके जीवन की साधना थी, वे साध्य भी हमारे चिरंतन श्रद्धा स्थान हैं, अर्थात रघुनंदन, साक्षात श्री महाविष्णु के सातवें अवतार!
हे मेरे आराध्य परमप्रिय श्रीराम, मेरे जैसा क्षुद्र व्यक्ति कितने, कैसे और किन शब्दों में आपके गुणों का बखान करे ? जहाँ हमारी वैखरी (जिसका जिव्हा से उच्चारण हो सकता वहीं) और परा, मध्यमा तथा पश्चन्ती ये परा वाणी (इन तीनों में संवाद तो है, परन्तु ध्वनि नहीं) भी मौन हो जाती हैं, वहाँ हमें साक्षात् आपको खोजने का प्रयत्न आपके प्रेरक चरित्र में ही करना होगा! भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता द्वारा जीवन का तत्व-ज्ञान समझाया, परन्तु हे रघुवीर, आपका सकल जीवन ही एक तत्वज्ञान है। आदर्शों के परिमाण लगाने हों तो उन आदर्शों के शिखर पर, हे राघवेंद्र आप ही विराजमान हैं। जितने भी मानव संबंधों की कल्पना हम कर सकते हैं, उसके प्रत्येक धागे में रामनाम ही गूंथा हुआ दृष्टिगोचर होग़ा। आदर्श राजा, पुत्र, बंधु, पति, पिता, सखा, शिष्य, नेता और भक्त वत्सल दयानिधि ईश्वर। ऐसा है यह आदर्शों का महामेरू।
चक्रवर्ती सम्राट तथा इंद्र का सखा, दिग्विजयी सूर्यवंश की शोभा को दसों दिशाओं में वृद्धिमान करने वाला राजा दशरथ जैसा पिता, कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी जैसी वात्सल्य की अमृत-धारा बरसाने वाली माताएँ सहोदर से भी अधिक प्रेमभाव से बंधे लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसे बंधु, ‘सहधर्मचारिणी’ इस शब्द की मूर्तिमंत प्रतिमा तथा लक्ष्मी का अवतार ऐसी राम की सहगामिनी सीता, ये सब उसके परिवार के सदस्य। राम का शत्रु भी था राक्षसराज रावण, दशानन (एक तरफ तो ४ वेद एवं ६ शास्त्रों का ज्ञाता तो दूसरी तरफ १० अप्रवृत्तियों का समुच्चय, यानि वासना, क्रोध, लोभ, आसक्ति, मद, मत्सर, द्वेष, असंवेदनशील वृत्ति, पश्चाताप का अभाव और भय), परन्तु श्रीराम के सहचर और अनुयायी देखिए, जैसे पूर्णचंद्र की ओर आकर्षित होने वाली विशाल सिंधु की लहरें। वानरराज सुग्रीव, जामवंत, अंगद, नल, नील और भक्त शिरोमणि हनुमान। ये सारे श्रीराम से जुड़े प्राणप्रिय मित्र और अनुयायी थे। साक्षात् रावण का अनुज विभीषण श्रीराम की शरण में आया था। इस पर राम ने उसको स्वीकारा ही नहीं, बल्कि राम-रावण युद्ध होने के पहले ही उसका लंकाधिपति के रूप में राज्याभिषेक तक कर डाला। राम की गुणग्राहक वृत्ति और दानयज्ञ को बारम्बार नमन। प्रभु श्रीराम के सान्निध्य में आते ही निषाद राज, गुहक और शबरी की जाति विशेष का पूर्णरूप से विलय हो गया, बस बचा तो केवल उनके नाम के इर्द-गिर्द राम नाम का वलय तथा राम नाम की गूँज।
कैसी अनुपम स्थिति रही होगी उन गुरुजनों की, जिन्होंने श्रीराम के गुरुत्व को स्वीकार किया। उन्हीं का जीवन धन्य हुआ, जिनके केवल नाम ही महान नहीं थे, परन्तु जो ज्ञान के मूर्तिमंत रूप ऐसे थे ये गुरुजन। महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, अत्री, अगस्ति इत्यादि-इत्यादि। राम ने इन सबसे यथार्थ में क्या, कितना और कैसे ज्ञान बटोरा, यह तो वे महान गुरू जानें या वह शिष्योत्तम रामचंद्र ही जानें! कोई भ्रमर, भ्रमण करते हुए जैसे विविध सुमनों से अत्यंत नाजुकता से और धीरे से मधु इकट्ठा करता है, ठीक उसी तरह इस राजीव लोचन आदर्श शिष्य ने अपने विनम्र स्वभाव से गुरुजनों के हृदय को जीतकर उनसे ज्ञान सम्पादित किया।
जाते-जाते स्मरण करती हूँ श्रीराम का एक आदर्श रूप, श्री राघवेंद्र हैं त्याग की साक्षात् प्रतिमा। उनकी त्यागी वृत्ति को कितनी ही बार नमन करूँ, तो भी कम होगा। किसी प्रकार का मोह नहीं, न ही कोई अभिलाषा। उनके मन और हृदय में थी केवल प्रजारंजन की असीम मनीषा, आस्था तथा इच्छा। प्रजा पर पुत्रवत प्रेम और ममता की वर्षा करने वाला ऐसा राजा न कभी पहले हुआ, न ही आगे होगा। प्रभु श्रीराम यत्र-तत्र-सर्वत्र पूजनीय। हे राजीव लोचन, करुणासिंधु रामचंद्र, इस मानस पूजा को विशाल हृदय से स्वीकार कीजिए। आपकी कृपा की शीतल छाया हम पर यूँ ही सदैव बनी रहे, यही तुम्हारे चरण कमलों पर शीश झुकाकर विनती करती हूँ।
“श्री राम चंद्र कृपालु भज मन हरण भाव भय दारुणम्।” अयोध्यापति श्री राम के चरणों के दर्शन की अदम्य इच्छा समेत यह शब्द कुसुमांजलि उनके चरण कमलों पर अर्पण करती हूँ। जय श्रीराम।
