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संचित यादों को अद्भुत शिल्प से उकेरा है अपनी कविताओं में

चर्चा-विमर्श…

भोपाल (मप्र)।

संतोष जी ने अपने एवं अपनों की संचित यादों को अनेक सुंदर बिम्बों और प्रतीकों के साथ अद्भुत शिल्प एवं कौशल से अपनी कविताओं में उकेरा है। उनकी कविता में रस्मों में भस्म होती स्त्रियाँ हैं, एसिड अटैक की पीड़ितों का आर्तनाद है, इतिहास में दर्ज स्याह पृष्ठ है तो सभी जख्मों से अपने को उभार कर सकारात्मकता के ठोस धरातल पर खड़ी स्त्री भी है।
मुख्य अतिथि के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार प्रो.डॉ. रानी श्रीवास्तव ने जन सरोकार मंच (टोंक, राजस्थान) द्वारा २८ अगस्त को आभासी पटल पर वरिष्ठ कवयित्री संतोष श्रीवास्तव के कविता संग्रह ‘यादों के रजनीगंधा’ पर आयोजित सारगर्भित चर्चा-विमर्श में यह बात कही। इस अवसर पर अध्यक्ष के रूप में वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र गट्टानी, विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार सरस दरबारी और वरिष्ठ साहित्यकार गोकुल सोनी की उपस्थिति रही।
प्रारंभ में वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती प्रमिला वर्मा ने संचालिका डॉ. भावना शुक्ल का परिचय पढ़कर संचालन के लिए आमंत्रित किया।
डॉ. शुक्ल ने आत्मीय शब्दों द्वारा स्वागत किया। सरस दरबारी ने बहुत सुंदर समीक्षा करते हुए कहा कि १८५ रचनाओं का यह काव्य संग्रह यादों-सपनों के बीच का सफ़रनामा है। यह उन सरोकारों का सफ़र है, जिससे हम सतत जूझते रहते हैं, चाहे वह स्त्री विमर्श का मुद्दा हो, सर्वहारा की त्रासदी हो या पर्यावरण की चिंता। उनकी अधिकतर रचनाएँ स्त्री विमर्श के पक्ष में बड़ी दृढ़ता से खड़ी है। सरस जी की सुंदर अभिव्यक्ति के संदर्भ में भावना शुक्ल ने कहा-
“शब्दों में संवेदना, भावों में आभास। कविता उनकी बोलती, रहती मन के पास…।”
अतिथि श्री सोनी ने कहा कि ‘यादों के रजनीगंधा’ संतोष जी की उल्लेखनीय काव्य कृति है, जिसमें जीवन का हर रंग समाहित है।
तत्पश्चात उत्सव मूर्ति संतोष जी ने कहा कि कविताएँ मेरी ताकत है। जब कभी मन शून्य में विचरण करता है, कविताएँ मुझे सँभालकर मेरे कदमों को ठोस ज़मीन देती हैं। कविता ख़ुद को विभिन्न कोणों से कहलवा लेती है। उन्होंने अपनी कविता में कहा-
“मैं अकिंचन
तुम मुझे समझो
प्रणय की रागनी
विरह के आकुल दिनों की संगिनी
तथा ‘पाजेब कहती है’ और मुश्किल है समझना।” यह कविता सुनकर सभी ने तालियों से उत्साहवर्धन किया।
अध्यक्षता कर रहे श्री गट्टानी ने कहा कि रचनाओं को जब पढ़ते हैं, तो लगता है अधिकांश रचनाएँ अवसाद से जन्मी है, अंतस के उद्वेलन से और आक्रोश से जन्मी है। यह कविताएँ उनकी यादों के रजनीगंधा का अर्क है, जो सृजन उपरांत उन्हें और पाठकों को भी राहत देता है।
अंत में डॉ. शुक्ल ने सभी का आभार व्यक्त किया।