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सागर और सरिता

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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“सुनो सरिते रौद्र रूप धर,
क्यों तांडव तुम यूँ करती हो ?
है सहज सरल तुम शांत स्वभावी,
फिर दहशत क्यों तुम भरती हो ?

आकंठ डुबाकर जनजीवन जल में,
क्यों त्राहि-त्राहि तुम मचाती हो ?
रो उठते हैं प्राणी मात्र सब तब,
जब नीड़ उनका तुम बहाती हो।”

“मैं भूली-बिसरी पावन सरिता,
हिमगिरी के शिखर से बहती हूँ
मैं कहां से निकली, कहां को जाती ?
कभी, किसी से कुछ न कहती हूँ।

गाँव के पावन गलियारों में बहती,
पवनों में, शीतलता मैं ही देती हूँ
संचित कर के कृषित भूमि को,
मैं घट-घट को नवजीवन देती हूँ।

घाट-घाट पर तृप्ताती हूँ सबको,
सब कूड़ा-कचरा जब मैं ढोती हूँ
सच कहती हूँ मैं कुदरत की बेटी,
मानुषी करणी पर तब मैं रोती हूँ।

क्यों भूल जाते हैं लोग मुझको ?
तृषा नाशिनी में उनकी रोटी हूँ
निर्मल-पावन मैं आई गिरी से,
पिया तक पहुंचते मटमैली होती हूँ।

जो जिसका किया, वह उसे लौटाती,
मैं बदला कहां कब किसी से लेती ?
निज करणी का फल भोग रहे हैं सब,
तुम कहते हो मैं यह सब दंड देती हूँ ?

जिन जनी नहीं कोई जान-जिस्म से,
प्रसव पीड़ा को वे भला क्या जानें ?
मैं जननी हूँ जलचर-थलचर की,
मेरी पीड़ा को भला वे क्यों मानें ?

मैं सज-धज-पावन निकली थी प्रियतम,
मटमैली गंदली होकर तुमसे मिलती हूँ
निर्दोष हूँ मैं सनातनी परंपरा प्रवाहित,
निज प्रहारों से देह कई की छीलती हूँ

होती है मुझे भी पीड़ा तब प्रियतम”
यह सब सुनकर सागर अकुलाता है।
“मदहोश मानुष की यह जरूरत ?” सागर,
सुनामी लहरों से आग-बबूला हो जाता है॥