कुल पृष्ठ दर्शन : 472

You are currently viewing अंग्रेजी कैसे बनाई गई अघोषित राजभाषा ?

अंग्रेजी कैसे बनाई गई अघोषित राजभाषा ?

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
**********************************************

गणतंत्र दिवस विशेष-२…

पिछले भाग में इस पर चर्चा हुई कि, कानूनी रूप से अंग्रेजी न केवल भारत की बल्कि भारत के सभी राज्यों की भी अघोषित राजभाषा है, साथ ही अंग्रेजी राज्यों की संपर्क भाषा और भारत राष्ट्र की राष्ट्रीय संपर्क भाषा की जमीन पर कब्जा करवा दिया गया है। अब यह जानना भी आवश्यक है कि, जब संविधान के अनुसार हिंदी भारत की राजभाषा होने और राज्यों की भाषाएँ राज्यों की घोषित राजभाषाएँ होने के बावजूद अंग्रेजी का कब्जा हर जगह कैसे हुआ ?
स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी सहित सभी स्वतंत्रता सेनानियों और विद्वानों ने भारत के लिए एक राष्ट्रभाषा की बात और हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प व्यक्त किया था। और यह संकल्प व्यक्त करने वाले केवल हिंदी भाषा नहीं बल्कि हिंदी भाषा से अधिक हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात उन राज्यों से थे, जिन राज्यों की भाषा हिंदी नहीं है, लेकिन राजनीति ने स्वतंत्रता के साथ ही राष्ट्रभाषा की बात को दरकिनार करते हुए राजभाषा संबंधी उपबंध किए। जब संविधान बनना शुरू हुआ तो राष्ट्रभाषा की बात थी। स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी सहित सभी स्वतंत्रता सेनानियों और विद्वानों ने भारत के लिए एक राष्ट्रभाषा की बात की थी और प्रांतों में प्रांतीय भाषाओं की बात की थी। पूरे भारत का यही स्वप्न था कि अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी से भी आजादी मिलेगी और देश का काम देश की भाषाओं में होगा, पर कुछ लोग ऐसे थे जो विलायत में पढ़े हुए थे और अंग्रेज तथा अंग्रेजीपरस्त थे। महात्मा गांधी की मृत्यु के पश्चात उनका काम और भी आसान हो गया था। आगे चलकर बहुत ही चतुराई के साथ राजनीति के तहत राष्ट्रभाषा के स्थान पर राजभाषा शब्द लाया गया। आम आदमी को लगा कि शायद राजभाषा और राष्ट्रभाषा एक ही बात है। राजनीति का यह खेल अधिकांश लोगों को समझ नहीं आया। यह बात सही भी है कि संवैधानिक रूप से भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हैदराबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति गोपाल राव एकबोटे ने इस विशेष पर एक विचारोत्तेजक पुस्तक भी लिखी थी। ‘ए नेशन विदाउट ए नेशनल लैंग्वेज़।’ अब यह तो तय हुआ कि विधिक रूप से हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार हिंदी भारत संघ की राजभाषा है।
अब विचार का विषय यह है कि, संविधान निर्माताओं ने जिस हिंदी को भारत संघ की राजभाषा बनाया था वह किस हद तक भारत संघ की राजभाषा है ?, यह समझने के लिए उचित होगा कि पहले हम राजभाषा का अर्थ समझ लें। राजभाषा यानी राजकाज की भाषा। अंग्रेजी में इसके लिए शब्द है ‘ऑफिशियल लैंग्वेज’, जिसका अर्थ होता है अधिकारिक भाषा। कहने का मतलब यह है कि वह भाषा जिसमें राज का कार्य किया जा सकता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत संघ के राजकाज की अधिकारिक भाषा हिंदी है। अगर भारत संघ के राजकाज की अधिकारिक भाषा हिंदी है तो यह कैसे संभव है कि भारत संघ का राजकाज का कार्य किसी अन्य भाषा में किया जा सके, लेकिन हम सब अच्छी तरह जानते और देखते हैं कि तमाम दावों और आँकड़ेबाजी के बावजूद भारत संघ का अधिकांश कार्य अंग्रेजी में ही होता है। अगर अंग्रेजी भारत संघ की आधिकारिक भाषा नहीं है, तो अंग्रेजी में काम किया जाना संभव ही नहीं है। एकदम स्पष्ट है कि भले ही संविधान में अंग्रेजी को राजभाषा न बनाया गया हो, लेकिन अंग्रेजी भी भारत संघ की राजभाषा है।
कहने को तो हिंदी भारत की राजभाषा और बाद में उसके साध अंग्रेजी का भी प्रावधान सहायक भाषा के रूप में किया गया है। अब पहले इस बात पर विचार करते हैं कि अंग्रेजी को किस प्रकार किसने या किस-किस ने क्रमश: और कैसे-कैसे भारत संघ की राजभाषा बनाया और राजभाषा हिंदी की जमीन पर अंग्रेजी का कब्जा करवाया। इस प्रश्न के उत्तर में २ बातें बहुत स्पष्ट हैं, पहली यह कि यह कार्य अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि भारत के ही अंग्रेजी समर्थकों ने किया और दूसरी बात यह है कि इस कार्य को वही कर सकता था, जो सत्ता में रहा हो।
यदि भारत के संविधान में ही अंग्रेजी राष्ट्रभाषा या राजभाषा नहीं थी तो, बिना संशोधन के भी अंग्रेजी को भारत संघ की राजभाषा बनाया गया तो स्पष्ट है कि उसके लिए सोची-समझी रणनीति के तहत कुछ उपबंध पहले से ही किए गए होंगे, ताकि आगे चलकर राजभाषा का पासा पलटा जा सके। स्वतंत्रता के समय भारतीयता और भारतीय भाषाओं के प्रति प्रत्येक भारतवासी का इतना अधिक प्रेम था कि उस समय अंग्रेजी को राजभाषा बनाना सरकार के लिए संभव ही नहीं था। कोई भी उसे स्वीकार ही नहीं करता। इसलिए संभव है योजना यही रही होगी कि फिलहाल हिंदी को स्वीकार कर लिया जाए, राज्यों में राज्यों की भाषाओं को स्वीकार कर लिया जाए, आगे चलकर धीरे-धीरे राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को स्थापित कर दिया जाए।
इस संबंध में सबसे पहले राजभाषा के संवैधानिक उपबंधों को देखना होगा। संविधान के अनुच्छेद १२० और २१० के अंतर्गत स्वतंत्रता और संविधान लागू होने के बाद भी संसद व विधानमंडलों में भी १५ वर्ष या अधिक अवधि तक तथा संविधान के अनुच्छेद ३४३ (२) के अनुसार संविधान लागू होने के १५ वर्ष तक संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग का प्रावधान कर दिया, जैसा कि इसके पहले किया था। कहने का मतलब स्वतंत्रता के बाद भी लंबी अवधि तक भारतीय व्यवस्था में अंग्रेजी की गहरी नींव डाल दी। सरकार का कहना था कि इन १५ वर्षों में हिंदी के प्रयोग के लिए सभी आवश्यक तैयारियां कर ली जाएंगी, लेकिन इसके लिए दिखावटी प्रयासों के अतिरिक्त आवश्यक प्रयास नहीं किए गए। इस संबंध में प्रथम राष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी चिंता भी व्यक्त की थी, लेकिन सरकार ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। निश्चित रूप से सरकार की मंशा तो कुछ और ही थी।
संविधान के अनुच्छेद ३४४ में संविधान लागू होने के ५ वर्ष और फिर १० वर्ष पश्चात राजभाषा के लिए आयोग और संसद की समिति बनाने का उपबंध किया गया था। इस आयोग का यह कार्य था कि वह संघ के शासकीय प्रयोजनों में हिंदी को बढ़ाने और अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बोंधनों के संबंध में अपनी सिफारिश करे और उसके बाद गठित संसदीय समिति द्वारा सिफारिशों की समीक्षा करके उस पर रिपोर्ट दी जाए। मतलब आयोग और समिति बनानी थी, लेकिन आगे चल कर जो हुआ, वह इसके उलट था।
पहला आयोग १९५५ में गठित हुआ, लेकिन दूसरा गठित ही नहीं किया गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आयोग का कार्य हिंदी को बढ़ाने और अंग्रेजी को कमतर करने की बात थी, लेकिन अंत में संसदीय समिति द्वारा जो रिपोर्ट दी गई उसमें अंग्रेजी को बनाए रखने की बात की गई। इसे यूँ समझा जा सकता है कि आयोग ने अपने उद्देश्यों के प्रतिकूल कार्य किया।
प्रश्न उठता है जब संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिंदी है, अंग्रेजी नहीं है तो भारत संघ का एक घटक यानी विधायिका और न्यायपालिका के लिए उस भाषा को क्यों प्राधिकृत किया गया जो संघ की राजभाषा है ही नहीं ? जो इस जनतांत्रिक देश की जनभाषा भी नहीं है। यह तो कुछ वैसी ही बात हुई, जैसे कोई कंपनी उत्पाद के ऊपर कुछ लिखें और अंदर कुछ और भर दे।
कहने को तो हिंदी को भारत की राजभाषा बनाया गया और संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार राज्य के अधिनियम के अंतर्गत निर्धारित भाषा या भाषाओं को उनकी राजभाषा बनाया गया, लेकिन विधायिका और न्यायपालिका के लिए अंग्रेजी भाषा निर्धारित कर दी गई। यह भारत के जनतंत्र और जनता के साथ धोखा नहीं तो क्या था ? किस प्रकार स्वतंत्रता के पश्चात लगभग १८ वर्ष तक भारत की व्यवस्था को अंग्रेजी में स्थापित करते हुए और उसके बाद भी अनिश्चित काल के लिए संसद से लेकर सभी विधान मंडलों मैं विधायिका तथा सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय आदि में अंग्रेजी को स्थापित कर जनहित और जनभाषा की उपेक्षा करते हुए राजभाषा के रूप में अंग्रेजी की मजबूत नींव रख दी गई थी।
इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद ३५० और ३५१ पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है, जिसकी निरंतर उपेक्षा की गई है।
संविधान के अनुच्छेद ३५१ के अनुसार संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्‍यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।
जब संविधान संघ को यह निर्देश दे रहा है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, वहाँ सरकार द्वारा इस निर्देश के प्रतिकूल अनंत काल के लिए अंग्रेजी को संघ की राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को स्थापित क्यों किया गया ? क्या यह संविधान के निदेश की अवमानना नहीं है ? उक्त विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि, न केवल अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाया गया, बल्कि उसे निरंतर बढ़ाया गया।
यह तो बहुत पहले से दिखने लगा था कि सरकार की मंशा अंग्रेजी को अघोषित राजभाषा के रूप बनाए रखने की है, लेकिन कहीं जनाक्रोश न हो इसके लिए कदम धीरे-धीरे उठाए गए।
हिंदी के लिए कार्य के बजाए कार्यक्रम और समितियों, समीक्षाओं, सिफ़ारिशों और आदेशों का खेल चलता रहा और इनकी आड़ में अंग्रेजी को आगे बढ़ाया जाता रहा। देश में शायद ही ऐसा कानून हो जिसके उल्लंघन पर किसी दंड का प्रावधान न हो, लेकिन प्रेरणा व प्रोत्साहन की नीति के नाम राजभाषा संबंधी कानूनों के उल्लंघन पर किसी दंड का प्रावधान नहीं। नक़ल की राह पर सब अंग्रेजी में चलता है। विधि और न्याय में अंग्रेजी के कारण हिंदी और भारतीय भाषाओं की राह कठिन तथा अंग्रेजी की राह अत्यंत सुगम है। इसलिए राजभाषा के नाम पर हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के नाम पर राजनीति और भाषा का यशोगान होता है जबकि अंग्रेजी में सब चलता है, अंग्रेजी और अंग्रेजीपरस्तों का सम्मान होता है। राजभाषा पर राजभाषा की नीति, उस पर कूटनीति ने हिंदी के बजाए अंग्रेजी को भारत की राजभाषा ही नहीं बिना कोई नाम दिए राष्ट्रभाषा के रूप में मजबूती से स्थापित कर दिया। ऐसा ही राज्यों में राज्यों की राजभाषा के साथ हुआ। ‘बांटों और राज करो’ की नीति पर हमें लड़ाया जा रहा है। भारतीय भाषाएँ लड़ रही हैं, अंग्रेजी बढ़ रही है। इस पर अगर दो पंक्तियाँ कहता हूँ तो अनुचित न होगा-
राजभाषा हिंदी की यारों, यह कैसी अज़ब कहानी है,
राज की चाबी अंग्रेजी को, कहने को हिंदी रानी है।

Leave a Reply