हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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मेरी लेखनी आज फिर से, एक सच्चाई यह लिखती है
कि दुनिया के हर चौराहे पर, यूँ कितनी भीड़ देखती है ?
पर पुकारते मदद को हैं तो, तब एक भी नजर न आता है
मुसीबत में अक्सर शख्स हमेशा, अकेला ही पड़ जाता है।
बड़ा मुश्किल है बचना आज, नफरत के अदृश्य शोलों से
हृदय जल-भुन सा उठता है, अनर्गल वर्ताग्नि के झोलों से।
कालिख ही कालिख है भीतर, लालिमा झरती कपोलों से
हर शख्स है मन का मैला पर,
साफ दिखता उसके बोलों से।
अब आदमी नहीं डरते हैं भूतों से, बल्कि उनसे भूत डरते हैं
भूतों का उतारा नहीं करते आदमी, भूत आदमी का करते हैं।
जिसको भी देखो तो उसको बस, हर घड़ी अपनी ही पड़ी है
सच पूछो तो असल में ये दुनिया, स्वार्थ के बल पर खड़ी है।
अंधा मानुष नहीं पहचानता है, अपने ही सगे रिश्तेदार को।
पहचान है तो बस पैसों को हैं, समझता ही नहीं है प्यार को॥