विजयलक्ष्मी विभा
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आँखों के आगे से गुजरा,
जब मेरा प्रिय गाँव
हाय मैं कितना रोई।
ऊँची-ऊँची पहाड़ियों की,
लम्बी बड़ी कतारें
बेटी की अगवानी को थीं,
सारे साज सँवारें।
छलक पड़ीं प्रेमातुर नभ से,
रिमझिम-रिम बौछारें
स्वागत करने दौड़ पड़ी थीं,
टेसू पगी बहारें।
हाथ पसारे किये हुये थे,
तरुवर शीतल छाँव॥
हाय मैं कितना रोई…
ज्यों-ज्यों दौड़ी गाड़ी मेरी,
यूकिलिप्टस भागे
देते हुये संदेशा-सा कुछ,
दौड़े आगे-आगे।
पंक्ति बना सागौन दौड़ते,
सबके-सब थे जागे
लगा, अभी तक बँधे हुये हैं,
वही प्रेम के धागे।
दिखा अभी भी मेरी खातिर,
वही अनूठा भाव॥
हाय मैं कितना रोई…
दिखे शीघ्र कुछ झोपड़-झुग्गी,
खँडहर लगे चिढ़ाने
आँखों ने टकटकी लगाई,
कोई मुझे पहचाने।
कार देख आये कुछ बच्चे,
जिग्यासा दर्शाने
तुम हो कौन, यहाँ क्यों आईं,
लगे प्रश्न दोहराने।
तभी दिखा इक भाई धरम का,
छुये दौड़ कर पाँव॥
हाय मैं कितना रोई…
लगा मुझे दौड़े आयेंगे,
मेरे सखा-सहेली
फिर खेलेगा बचपन मेरा,
उनकी पकड़ हथेली।
छिपा छिपउअल खो सतखिपड़ी,
बनने लगे पहेली
दौड़ा-दौड़ा दृष्टि देखती,
दिखी न कोई नवेली।
लगा एक झटका-सा सहसा,
हुआ हृदय में घाव॥
हाय मैं कितना रोई…
पहुँच गई फिर उस पड़ाव पर,
दिखा जहाँ घर अपना
खेली-कूदी-पढ़ी जहाँ वह,
बाबुल का प्रिय अँगना।
दीवारों ने गले लगा कर,
दे दी मुझे उलहना
किसको भाता बतला बेटी,
सूनेपन में रहना।
भाई हुआ परदेसी तेरा,
मुझे कौन दे ठाँव॥
हाय मैं कितना रोई…
बसी दूर जा घर की लक्ष्मी,
कौन करे रखवाली ?
एकाकी रह बिखर गया हूँ, जीवन से हूँ खाली।
सुबक पड़ा वो अँगना बूढ़ा,
मेरा बूढ़ा माली
मैं बिटिया बगिया बाबुल की,
लगी स्वयं को गाली।
बिछड़े सभी एक-दूजे से,
सब थे लिये तनाव॥
हाय मैं कितना रोई…
कुटी द्वार पर बूढ़े काका, खटिया में थे पौड़े ,
जाड़े की सिहरन में खुद को,
गठरी सदृश सिकोड़े।
देखा मुझे दूर से आते,
हाथ उन्होंने जोड़े
जैसे एक फिरंगी आया,
चढ़ कर ऊँचे घोड़े।
पार लगाने वाली जैसे,
मैं थी उनकी नाव॥
हाय मैं कितना रोई…
मन में व्यथा आँख में आँसू,
असह्य दर्द छिपाये
बैठ गई मैं पुन: कार में,
सपने सब भरमाये।
मुझे लौटता लगे देखने,
सब जन दृष्टि गड़ाये
कैसे रुकती वहाँ जहाँ थे,
सब हो गये पराये॥
कन्या धन-सी चली सदन से,
पारित-सा प्रस्ताव,
हाय मैं कितना रोई…
परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।