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आखिर कब पूर्ण गणतंत्र ?

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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गणतंत्र दिवस:देश और युवा सोच…

भारत एक गणतांत्रिक देश है, यह सत्य किसी से छुपा नहीं है, परंतु भारत के गणतंत्र दिवस तक की कहानी कैसे-कैसे कदम दर कदम आगे बढ़ती है, यह बात नई पीढ़ी तक ले जाना पुरानी पीढ़ी का जिम्मा है। इसके विषय में जब चर्चा की जाती है तो नई पीढ़ी के लिए एक क्रमिक ज्ञान समायोजित करना पुरानी पीढ़ी का दायित्व बन जाता है। इस कड़ी में यदि हम भारतीय संविधान के निर्माण की गाथा को शुरू से खंगालने की कोशिश करेंगे तो ९ नवंबर १९४६ ईस्वी का वह दिन हमें जरूर याद आता है, जिस दिन संविधान सभा के अस्थाई सदस्य डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की अध्यक्षता में संविधान सभा की बैठक पहली बार हुई थी। सन १९४६ में ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का अध्यक्ष चुना गया था। भारतीय संविधान सभा की घोषणा १५ अगस्त १९४७ ईस्वी को भारत की आजादी के उपलक्ष्य पर डॉ. प्रसाद की अध्यक्षता में ही की गई थी ।इस सभा में डॉ. भीमराव आम्बेडकर को संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष चुना गया था।
भारतीय संविधान सभा ने संविधान को लिखना शुरू किया। भारत के संविधान को बनाने के लिए विश्व के लगभग ६० गणतांत्रिक देशों के संविधानों का अध्ययन किया गया था। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा है,-“संविधान जनता के लिए है और जनता ही इसकी अंतिम संप्रभु है। यह प्रस्तावना लोगों के लक्ष्य, आकांक्षाओं को प्रकट करती है।” प्रस्तावना के इस कथन पर आज भारत की जनता को कितनी संप्रभुता मिली है ?, यह समझाना आज किसी अजूबे से कम नहीं है। संविधान की मानें तो भारत की जनता को राष्ट्र की मूल व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में निर्णय लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होना चाहिए, परन्तु भारत में आजादी के ७५ साल बीत जाने के बाद भी जनता को वे अधिकार प्राप्त नहीं है, जो संविधान ने उसे मौलिक अधिकारों के तहत प्रदान किए हैं। सबसे बड़ी अवहेलना समानता के अधिकार के तहत हो रही है। एक देश एक विधान की दृष्टि से यदि देखें तो समानता के अधिकार की नागरिकता के आधार पर धज्जियाँ उड़ाई जा रही है।जातिवाद और धर्मवाद के आधार पर मानव- मानव में बहुत भेद किया जा रहा है। व्यक्ति- व्यक्ति और समुदाय विशेष के कुछ विशेषाधिकार निहित हैं, जो समानता के अधिकार की तौहीन है। कुछ वर्गों और समुदायों को संविधान में निर्धारित समय सीमाओं से परे होकर अधिकार दिए जा रहे हैं और कुछ को कुछ नहीं। यह एक देश एक विधान के तहत अन्याय है। यही हाल विवाह पद्धति के सन्दर्भ में भी है। ये बातें कैसे और किससे कहें ? १९५० से २०२१ तक संविधान के १०५ संशोधन किए जा चुके हैं, पर कहीं भी जन लोकपाल बिल और समान नागरिक संहिता की बात को महत्व नहीं मिल पाया है। यह सच है कि समय-समय पर ऐसी मांगें उठती रही है, परन्तु उन्हें राजनीतिक षड्यंत्रों की चक्की में पीस दिया जाता है। यदि ठीक से गौर करें तो पूर्ण गणतंत्र राज्य के लिए इन नियमों का कड़ाई से लागू होना अति आवश्यक है। वरना सत्ता और प्रशासनिक वर्ग का प्रभुत्व जनता पर स्थापित हो जाता है, जो वर्तमान समय में दिख भी रहा है। नेतागिरी और आधिकारिक धौंस अभी भी अंग्रेजी हकूमत के जैसी भारत में निरन्तर बनी हुई है। मनाने को तो हर वर्ष २६ जनवरी को ‘गणतंत्र दिवस’ मनाया जाता है, पर क्या वह सही मायने में गणतंत्र दिवस है ? शायद नहीं, क्योंकि आज भी भारत की एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी और भूखमरी से जूझ रही है। आज भी आम जनमानस पूर्ण रूप से आजाद नहीं है, क्योंकि उस पर हुक्मरानों और लाल फीताधारियों का दबाव है। सम्पति का समान वितरण आज भी कहां हो रहा है। संपति का तीन चौथाई हिस्सा आज भी उच्च और धनाढ्य लोगों के पास है। आम जनमानस को मिलता है तो मात्र एक तिहाई हिस्सा। आज भी भारत की जनता का एक बहुत बड़ा हिस्सा मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।
आज प्रश्न है तो वह यह है कि आखिर भारत में कब पूर्ण गणतंत्र मनाया जाएगा ?जब हर आदमी को उसका पूरा अधिकार मात्र कागजों में ही नहीं, बल्कि असल में मिलेगा। अन्ना हजारे ने एक प्रयास भी किया था, पर वह भी सिरे नहीं चढ़ पाया। जिन पूर्वजों ने अपना बलिदान देकर भारत को यह सपना देख कर आजाद करवाया था, कि भारत की जनता को पूर्ण गणतंत्रता प्राप्त हो। उनके दिलों पर आज क्या बीतती होगी, यदि वे किसी लोक या दुनिया से आज भारत का दृश्य देखते होंगे।

वे तो अंग्रेज थे, जो भारतीयों का काम कभी भी समय पर नहीं करते थे। फिर करते भी थे तो पूरी खुशामद करवा कर ही करते थे, पर आज तो काम करवाने वाला भी भारतीय है और करने वाला भी भारतीय ही है, तो भी आज हालत उससे बदतर है। बिना रिश्वत या चाटुकारिता के कोई काम करने को राजी नहीं है। शायद ऐसे भारत की कल्पना तो कभी हमारे पुरखों ने न की हो।

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