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आज न होगा मंगल गान

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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आज न होगा कोई मंगल गान प्रिये,
विपदा में व्यथित जो समूची धरती है
नफरत के शोलों से विदीर्ण हर वक्ष आज है,
मानवता तिल-तिल कर आज यहां मरती है।

दर्द का दरिया बह रहा है दिल में,
हृदय की जमीन हो गई अब परती है
मानस कल्पना की लहरों से भी अब तो,
आक्रोश-कटाक्ष की आग ही झड़ती है।

अतृप्त लालसाओं ने जग को है घेरा,
स्वार्थ बेड़ियों ने रूह ही मानो जकड़ी है
अब उठती ही कहां है कोमल भावनाएं मन में ?
हृदय भाव की गति भौतिकता ने जो जकड़ी है।

होता न आदर आज गाँव के गलियारों में,
शहरों में तो पहले से ही रही आपा-धापी है
आज न नातों-रिश्तों की कद्र है कहीं पर,
मानव रूप में पाश्विक सभ्यता देखो आती है।

गाँव की गुड्डी को गबरू बहन यहां कहते थे,
आज नवजवान देहाती भी खुराफाती है
महफूज कहां रही अब अस्मत बहू-बेटी की ?
वह अपनों के ही हाथों आज लूटी जाती है।

पढ़े-लिखे आदिमानव हो चले हैं हम क्या ?
अर्धनग्न घूमते हैं और मद्य-माँस ही खाते हैं।
पशु-सी करते हैं करतूतें सब उन्मादी में,
फिर खुद को सभ्य-सुसंस्कृत मानव बताते हैं।

हाय-हाय रे! फैशन लाचारी और मानव दुर्दशे,
सच में आज विद्रूपता है जीती और हम हैं हारे
शहर-शहर और गाँव-गाँव में देखो आज तुम,
हर कोई फिरता है फैशन के पीछे मारे-मारे।

आज न होगा कोई मंगल गान प्रिये,
इन सब घटनाओं से भीतर भारी पीड़ा है
मानव समाज में विकृतियों आते देख को,
सोचता हूँ, यह विधि की कैसी क्रीड़ा है ?

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