डॉ.मधु आंधीवाल
अलीगढ़(उत्तर प्रदेश)
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जरा-सी आहट से चौंक जाती हूँ,
लगता है तुम होगे आस-पास,
पर जब देखती हूँ तो तुम क्या,
तुम्हारी परछाई भी नहीं मेरे पास।
याद आते हैं वह लम्हें,
जो गुजारे थे तुमने और मैंने
याद आते हैं वह पल जब,
तुम चूम लेते थे मेरी पलकों को
और याद आता है हाथों का स्पर्श,
जब सहलाते थे मेरे गालों को।
मैं हो जाती थी निहाल इन्हीं बातों पर,
जो बन जाती थी एक नन्हीं चिड़िया
जो ढूंढती है एक मजबूत घोंसला,
पर उसे पता नहीं होता कि
घोंसला मजबूत नहीं होता क्योंकि,
तिनकों से बना घोंसला तो जरा-सी
आंधी में ही उड़ जाता है।
पर मैं आज भी खड़ी हूँ उसी वीराने में,
उसी आहट के इन्तजार में…॥