संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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नारी:मर्यादा, बलिदान और हौंसले की मूरत…
हे नारी,क्यों तुम ऐसी हो…
निर्मल गंगा जैसी हो,
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
अपने गुण से,
अपने सौंदर्य से
सबको मोहने लगती हो,
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
सबको क्यों, तुम अच्छी लगती हो…
इसमें कोई शक नहीं…
कि तुम बड़ी अच्छी लगती हो…,
मन में बनकर चाहत…
बड़ी अच्छी लगती हो…,
इतनी तुम प्यारी हो…
प्यारी-प्यारी लगती हो…
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
किसी की माँ तो,
किसी की बेटी तुम…
तो किसी की बहन,
किसी की चाची तुम…
किसी की मामी,
तो किसी की सखी लगती हो…
सहज भाव हिलमिल जाती,
पलभर में रिश्ता जोड़ लेती
सर्वव्यापी जल जैसी,
हर रिश्ता सहेजने वाली
रिश्ते प्यार के दिल में,
संभालने वाली तुम…
कोमल हृदया हो तुम,
तरल भाव की कन्या तुम…
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
चंद्रकिरण-सी शीतलता तुममें…
चंदन-सी सुंगंध फैलाने वाली तुम,
पुष्प की कोमलता है तुममें…
ईश्वर चिंतन में सदा रममाण तुम,
किसी को मरियम…
भक्ति ज्योत-सी जलाने वाली,
किसी को मीरा लगती हो…
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
सेवाभाव में दंग समाधिस्त तुम…
तुलसी-सी पवित्रता तुममें,
तितली-सी चंचलता तुममें…
गुंजन तुम, वीणा नाद तुम,
पायल की झंकार तुममें
बाँसुरी की कोमल तान तुम हो…
कभी मधुर वाणी है तुम्हारी,
तो कभी चपला-सी…
कड़कती आवाज तुम्हारी…
शूरवीरा तुम, विजयशील तुम,
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
कितने तुम्हारे, रंग-रुप…
पल-पल बदलती…
हर पल मचलती,
जैसे छांव-धूप…
खुद से निखरती,
सजती संवरती…
हर घाव सहती,
हर बार बहती…
वो नदी हो तुम…
फिर भी मासूम-सी दिखती हो,
प्यारे से फूलों जैसी खिलती हो…
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…।
शक्ति हो तुम…,
आदि से अनादि तक
सब-कुछ होकर भी…
सबसे पहले और आखिर भी…
हे जगत जननी…।
मातृ हो तुम, मातृ हो तुम…,
हे नारी, क्यों तुम ऐसी हो…॥