ललित गर्ग
दिल्ली
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धर्म और राजनीति के घालमेल से समाज एवं राष्ट्र में उन्माद, अराजकता एवं अशांति पैदा हो रही है, राजनीति-धर्म का बेजा इस्तेमाल करते हुए अपने मत बैंक को बढ़ाने में लगे हैं तो तथाकथित धर्म के ठेकेदार एवं धर्मगुरु राजनीतिक मंचों का उपयोग करते हुए स्वयं को चमकाने में लगे हैं। दोनों ही अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए धर्म की मूल आत्मा को ध्वस्त कर रहे हैं, इस तरह की घटनाओं को लेकर लगातार कई मंचों से चिंता व्यक्त की जाती रही है, लेकिन यह विडंबना ही है कि यह घालमेल बढ़ता ही जा रहा है। उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी समीचीन है कि जब तक धर्म और राजनीति को अलग-अलग नहीं करेंगे, नफरत की आंधी पर विराम नहीं लगेगा। सार्वजनिक मंचों पर सभी यह मानते हैं धार्मिक वैमनस्यता, नफरत, घृणा, द्वेष उचित नहीं है, लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं दिखता। जाहिर है कि राजनेताओं और धर्माचार्यों के एक वर्ग ने स्वार्थवश न तो राजनीति को पवित्र रहने दिया है, न ही धर्म को, जबकि धर्म का पहला मंत्र ही स्वार्थ से मुक्ति पाना है। भारतीय संस्कृति की आत्मा ही धर्म है, लेकिन वास्तविक धर्म क्रिया-कांड, आडम्बर एवं एक-दूसरे को नीचा दिखाने में नहीं है। धर्म तो जीवन का स्वभाव है, खुद को पवित्र करने का जरिया है।
राजनीति पर धर्म का नियंत्रण हो, यह अपेक्षित है, लेकिन कौन से धर्म का नियंत्रण ? वास्तविक धर्म न तो पंथ, मत, सम्प्रदाय, मन्दिर या मस्जिद में है और न धर्म के नाम पर पुकारी जाने वाली पुस्तकें ही धर्म है। धर्म तो सत्य और अहिंसा है, धर्म तो जीवन रूपान्तरण-आत्मशुद्धि की प्रक्रिया है। धर्म इंसानों को जोड़ने का माध्यम है न कि तोड़ने का। धर्म तो त्रस्त, दुःखी एवं व्याकुल मानव-जीवन को आत्मिक सुख-शांति एवं राहत की ओर मोड़ने वाला है। धर्म की इस उत्कृष्टता को हिंसा, अलगाव, बिखराव कहां स्वीकार्य है। इसलिए जरूरी है कि तुष्टिकरण हटे और उन्माद भी हटे। अगर भारत माता के शरीर पर धर्म के नाम पर बड़े-बड़े घाव करके भी हम कुछ नहीं सीख पाए, आस्था को उन्माद बनाने से नहीं रोक पाए, धर्म की राजनीति करना नहीं छोड़ा और सर्व-धर्म समभाव की भावना को पुनः प्रतिष्ठापित नहीं किया तो यह हम सबका दुर्भाग्य होगा। इसलिए सबको सन्मति दे भगवान।
धर्म और राजनीति का मेल होना चाहिए या नहीं, इस पर पहले भी व्यापक बहस होती रही है। एक वर्ग यह मानता है कि धर्मविहीन राजनीति अपना उद्देश्य कभी पूरा नहीं कर पाती। धर्म के बिना राजनीति मधु के बिना मधुमक्खियों के छत्ते की तरह है, जो सिर्फ लोगों को काट ही सकती है। इस तर्क में भी तभी तक दम है जब तक धर्म को उसके सच्चे अर्थों में स्वीकार किया जाए। ऐसे भारतीय इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद हैं, जब शासनाध्यक्षों ने अपने समय के सिद्ध धर्माचार्यों की शरण में रह कर उनके दिग्दर्शन में राजकाज चलाया, लेकिन वैसे धर्माचार्य कभी शासनाध्यक्ष नहीं बने, पर समय के साथ-साथ धर्म और राजनीति दोनों में विद्रूपता भी आई है। आज तो राजनीति कथित धर्माचार्यों के सिर चढ़कर बोल रही है। धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले राजनेता कानून और व्यवस्था की लक्ष्मण रेखाएं लांघ रहे हैं। ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई’ इस आदर्श को निभाने वाले लोग देश को संगठित करने, ताकतवर बनाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय जिन मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त कर रही है, राजनीतिज्ञ, कर्णधार, धर्मगुरु और नेतृत्व देने वाले ऐसी चिन्ता क्यों नहीं कर पा रहे हैं ? वे अगर तात्कालिक एवं दूरगामी नतीजे का अनुमान नहीं लगा पाए तो यह देश का दुर्भाग्य है। देश की शीर्ष अदालत ने कहा है कि कानून-व्यवस्था बनाए रखना मूल रूप से राज्यों का काम है, इसलिए नफरत फैलाने वाले बयानों पर रोक लगाने की जिम्मेदारी भी मुख्य रूप से राज्यों की बनती है, लेकिन राज्य सरकारें इसके लिए कोई प्रभावी कदम उठाती नजर नहीं आ रही हैं। न्यायालय ने सवाल उठाया कि आखिर राज्य होता ही क्यों है ? आजादी के दीवानों को भी धर्म और राजनीति के अनैतिक घालमेल की आशंका रही होगी, इसीलिए उस दौरान यह विचार तेजी से आगे बढ़ा कि धर्म और राजनीति को अलग-अलग रहना चाहिए। महात्मा गांधी ने इस विचार को बखूबी आगे बढ़ाया। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, गुरू गोविन्दसिंहजी जैसे अनेक धर्मगुरु वास्तविक धर्म की स्थापना के लिए तत्पर रहे हैं, वे व्यवहार में पूरे धार्मिक थे, लेकिन राजनीति में इससे दूर रहे। भारतीय पुनर्जागरण के दौरान भी धर्म और राजनीति से ऊपर देश हित को रखा गया और विभिन्न धर्मावलंबी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे। ऐसे में शीर्षक न्यायालय की यह चिंता जायज ही कही जाएगी।
हमारा राष्ट्र सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, धर्मनिरपेक्ष -(पंथ निरपेक्ष कहना चाहिए) समाजवादी गणतंत्र राष्ट्र है, इससे हटकर हमारी मान्यताएँ, हमारी आस्थाएं, हमारी संस्कृति सुरक्षित नहीं रह सकती, हमारा देश एक नहीं रह सकता। हम सब एक राष्ट्र के नागरिक के रूप में जी नहीं सकते। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए विश्व की बड़ी ताकत बनने की ओर अग्रसर राष्ट्र को तथाकथित साम्प्रदायिक ताकतें एवं भारत विरोधी शक्तियां अपने उन्माद में, अपने स्वार्थ में, अपनी राजनीतिक उद्देश्यों में इसे कमजोर करती हैं, तो ऐसी ताकतों से राष्ट्र की रक्षा की जानी जरूरी है। खतरा हमारी संस्कृति को है, हमारी राष्ट्रीयता को, हमारी सांझा संस्कृति को हैं, जो हमारी हजारों वर्षों से सिद्ध चरित्र की प्रतीक है। जो युगों और परिवर्तनों के कई दौरों की कसौटी पर खरा उतरा है।
देश में अनेक धर्म के सम्प्रदाय हैं और उनमें सभी अल्पमत में हैं, वे भी तो जी रहे हैं। उन सबको वैधानिक अधिकार हैं तो उनके नैतिक दायित्व भी हैं। देश एवं सरकार संविधान से चलते हैं, आस्था से नहीं। धर्म को सम्प्रदाय से ऊपर नहीं रख सके तो धर्म का सदैव गलत अर्थ निकलता रहेगा। धर्म तो संजीवनी है, जिसे विष के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। मतों के लिए जिस प्रकार की धर्म की राजनीति चलाई जा रही है और हिंसा को जिस प्रकार समाज में प्रतिष्ठापित किया जा रहा है, क्या इसको कोई थामने का प्रयास करेगा ? राजनीति का व्यापार करना छोड़ दीजिए, भाईचारा अपने-आप जगह बना लेगा। कोई भी परिवार, समुदाय या राष्ट्र एक-दूसरे के लिए कुर्बानी करने पर ही बने रहते हैं। क्या देशवासी एकजुट होकर पूर्वाग्रह, आग्रह एवं दुराग्रह उत्सर्ग करने के लिए तैयार होंगे। यह आज सबसे बड़ा राष्ट्रीय प्रश्न है और समय की मांग है, जो शताब्दियों में किसी राष्ट्र के जीवन में कभी-कभी आता है।
आज नया भारत, सशक्त भारत को निर्मित करते हुए हमें ऐसे धर्म की स्थापना करनी होगी जिसमें आदमी अशांति में सें शांति को ढूंढ निकाले, अपवित्रता में से जो पवित्रता को ढूंढ ले, असंतुलन में से जो संतुलन को खोज ले, हिंसा में से जो अहिंसा को स्थापित कर दे और अंधकार में से जो प्रकाश को पा ले। इस दुःख को देने वाले राजनेताओं से धर्म की रक्षा करना जरूरी है।