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जड़ें

माया मालवेंद्र बदेका
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
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कल जड़ें मिली थी मुझे मेरे बचपन की,
देखते ही लहलहा उठी
मुझे कई कई वृक्षों से बतियाना था,
ढेर बातें करनी थी
लग रहा था सारा प्यार उँडेल दूँ,
फिर न जाने कब यह वृक्ष मिलेंगे।

यह वह वृक्ष है,
जो मेरी आँख खुलते ही मेरे सामने थे
यह वह वृक्ष थे, जो मेरे साथ ही लगे थे,
कुछ वृक्ष मेरे समीप थे, कुछ दूर
सब छोटे-बड़े-मंझले, ममेरे, फुफेरे चचेरे मौसेरे।

मिली बचपन की सखियाँ जो,
घोड़ा बदाम खेलती और चंग पे पर मात देती
आज इठला कर अपने मोटे तन के साथ बेफिक्र,
उंन्मुक्त हँसी हँस रही थी कि, अब तो दौड़ नहीं पाती।

कितना सरल सहज,
सब बरसों में मिले पर, कोई दिखावा नहीं
काम चलता रहा, बातें चलती रही,
कोई औपचारिकता नहीं
कुछ नहीं सोफा सूना पड़ा रहा, ओटले पर बैठ गए,
न चाय की मनुहार न कुछ और
बस यही कि समय थम जाए और हम न बिछुड़ें।

उन वृक्षों की डालियों से झूमना मुझे आल्हादित कर गया,
उन वृक्षों के छोटे-छोटे और पौधै अंकुरण हो गए
सब झूम रहे थे,
मैं सबके बीच बगीचे में खड़ी महसूस कर रही थी
प्यार, विश्वास, रिश्ते की फसल
सचमुच प्यार की, स्नेह की खाद से रिश्ते कितने पल्लवित होते हैं।

ठंडे-ठंडे स्नेह की छाया, प्रीत की ऊष्मा,
अम्बर से धरा तक गगन गूंजने वाली हँसी
इस प्यार के आगे तो सब पकवान फीके हैं,
भूख-प्यास भी नहीं कहती कुछ
तन की सुध कहां मन सबको देख मंडरा जो गया।

जी भर कर प्रीत के क्षण जीना,
पता नहीं जग में और कितना जीना।
यह धरती-अम्बर वैसे ही रहते हैं,
हम वृक्ष जैसे सूखते, पल्लवित होते रहते हैं॥

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