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जल-संकट:व्यापक हित में विवेक से निर्णय आवश्यक

ललित गर्ग
दिल्ली

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पिछले कई दिनों से गंभीर जल संकट से दिल्ली की जनता परेशान है। पानी की कमी से जूझ रहे लोग बूंद-बूंद पानी इकट्ठा कर रहे हैं और अपने पानी के डिब्बों को जंजीर से बांधकर रख रहे हैं। यह चिंताजनक इसलिए है कि अगर ऐसे ही हालात बने रहे तो यह संकट कभी भी जल संघर्ष एवं हिंसा में बदल सकता है। यह तो अक्सर देखने में आता ही रहा है कि पानी को लेकर लोग एक-दूसरे की जान तक लेने में भी नहीं हिचकते। भीषण गर्मी में दिल्ली के जल-संकट को जल्दी-से-जल्दी दूर करना सरकार की प्राथमिकता होनी ही चाहिए।
दिल्ली में जल संकट वैसे तो हर वर्ष गर्मी की समस्या है, पर इसका दुष्प्रभाव साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ती जनसंख्या से समस्या गंभीर होती जा रही है। अगर हम आँकड़ों पर गौर करें तो यह बात काफी हद तक सच भी है, परंतु केवल जनसंख्या में वृद्धि ही कारण नहीं है। विश्व के किसी भी शहर एवं खासकर राजधानी क्षेत्र की जनसंख्या में वृद्धि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, पर इससे उपजने वाली विभिन्न समस्याओं एवं जल संकट का मूल आबादी की बजाए, आबादी द्वारा चुनी गई सरकार एवं उसके लिए कार्य करने वाली संस्थाएं हैं, जो जीवन के मूलभूत तत्वों एवं जीवन निर्वाह की मूल जरूरतों में से एक जल भी उपलब्ध नहीं करवा पाती है। यह सरकार की नाकामी को दर्शाता है।
यह कैसी सरकार है जिसके शासन में एक-एक बाल्टी पानी के लिए लोग रात-रात भर जाग रहे हैं। जहां पानी पहुंच रहा है वहां लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। जिनके पास पानी खरीदने को पैसे नहीं हैं, वे गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। जो खरीद सकते हैं, वे मुँहमांगा दाम दे रहे हैं। यह हर साल का रोना है। लेकिन विडंबना यह है कि स्थायी समाधान के लिए क्या हो, इसकी फिक्र किसी को नहीं दिखती।
दिल्ली में जल-संकट का कारण राजनीति भी है। पानी को लेकर विवाद दूसरे राज्यों में भी होते रहते हैं। नदियों के पानी पर किसका और कितना हक हो, यह मुद्दा जटिल तो है ही, राज्यों की राजनीति ने इसे और पेचीदा बना डाला है। दिल्ली को अतिरिक्त पानी देने को लेकर उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश के और हरियाणा सरकार ने अपनी मजबूरी जता दी है। इससे तो यही लग रहा है कि पानी को लेकर सरकारें राजनीति कर रही हैं। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है, जबकि उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भाजपा की। जब दिल्ली में आआपा और उसी की सरकार पंजाब में है तो वह समाधान के लिए तत्पर क्यों नहीं होती ? क्यों जल पर राजनीति की जा रही है ?
ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ मत की प्यास है, वे अपनी स्वार्थ की प्यास को इस पानी से बुझाना चाहते हैं। यह जल-विवाद आज हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दे उससे पूर्व आवश्यकता है तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक राष्ट्रीय हित एवं जनता के हित के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। जीवन में श्रेष्ठ वस्तुएं प्रभु ने मुफ्त दे रखी हैं-पानी, हवा और प्यार। और आज वे ही विवादग्रस्त, दूषित और झूठी हो गईं हैं।
भारत की नदियां शताब्दियों से भारतीय जीवन का एक प्रमुख अंग बनी हुई हैं। इन्हीं के तटों से ऋषियों-मुनियों की वाणी मुखरित हुई थी। जहां से सदैव शांति एवं प्रेम का संदेश मिलता था। इसमें तो पूजा के फूल, अर्घ्य और तर्पण गिरता था अब वहां निर्दोषों का खून गिरता है। हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं विविधता की एकता का संदेश इन्हीं धाराओं की कलकल से मिलता रहा है। जो जल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी की भी प्यास बुझाता है, उसमें अलगाव, राजनीतिक स्वार्थ का जहर कौन घोल रहा है ?
राज्यों के अपने तकनीकी व अन्य कारण हो सकते हैं। हो सकता है कि वे उचित भी हों, लेकिन सारे राज्य एक ही देश के हैं, पड़ोसी हैं, सभी के नागरिक भी एक ही हैं। ऐसे में कोई राज्य किसी जरूरतमंद राज्य को पानी नहीं देकर संकट खड़ा करता है, तो यह गंभीर बात है, यह प्रदूषित राजनीति का द्योतक है। ये स्थितियां गृह युद्ध की तरफ बढ़ रही हैं, जिस पर नियंत्रण पाना किसी प्राधिकरण के लिए सम्भव नहीं होगा। ये स्थितियां हमारे संवैधानिक ढांचे के प्रति भी आशंका पैदा कर रही हैं। ‘नदी जल’ के लिए कानून बना हुआ है। आवश्यक हो गया है कि उस पर पुनर्विचार कर देश के व्यापक हित में विवेक से निर्णय लिया जाना चाहिए।

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