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जीवन ढला

शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान) 
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शैशव से फिर आया बचपन और जवाँ का दौर चला।
जैसे उदय पूर्व से होकर रवि पश्चिम में जाय ढला॥

समय धुरी पर चलता रहता रोक नहीं कोई पाया,
जीवन की गति यही निरंतर ये सब है विधि की माया।
सूरज-चाँद सितारे नदियाँ है परिणाम यही सबका,
खिलते हैं सब वृक्ष धरा पर ऋतु बसंत के आने से।
सभी सूखते पत्ते गिरते पतझड़ के आ जाने से,
यही नियम है इस प्रकृति का जो आया वो गया चला॥

ऐसे ही चलता जाएगा ये अपना जीवन संग्राम,
बनना मिटना तो निश्चित है नहीं रहेगा साँसें थाम।
राजा या धनवान कोई भी या गुर्बत की गोद पला,
दुनिया एक मुसाफिर खाना यहां न रहने पायेगा
नश्वर है माया का तन ये यूं ही मिटता जाएगा।
इसका मिट्टी का मोल नहीं है नीर समय का देय गला…॥

नाम अगर रखना है जग में नेकी कर दरिया में डाल,
शुभ कर्मों से जीवन सारा हो जाएगा मालामाल।
वक्त बच रहा हैं थोड़ा, जीवन का सूरज जाय ढला…॥

परिचय–शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है

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