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डिलीवरी ब्वाय का दर्द

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
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महानगर तो महानगर, अब तो छोटे शहरों में भी सड़कों पर एक नए तरह की भीड़ दिखाई पड़ती है, जो अपने सिर पर हेलमेट में अपने भविष्य के सपने छिपाए अपनी पीठ पर समान का बैग लादे हुए, मोबाइल स्क्रीन पर नजरें गड़ाए हुए अपने जीवन की उम्मीद लिए हुए भागते चले जा रहे होते हैं।
ये और कोई नहीं, आपका डिलीवरी ब्वाय है, जिन्हें लोग इज्जत देकर ‘डिलीवरी वाले भइया’ कह देते हैं। वैसे ही, जैसे मीटर रीडर को ‘बिजली वाले अंकल’ कह दिया करते हैं।
सच कहा जाए तो इनकी ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है। जब से १० मिनट में डिलीवरी वाला फंडा चालू हो गया है, एक तरह से यह ऑनलाइन कम्पनी के बंधुआ मजदूर की तरह से बन गए हैं, क्योंकि यदि ये समय पर न पहुँचे तो इनकी कटेगी सैलरी और इन्सेन्टिव भी… और संभव है कि नौकरी भी चली जाए, क्योंकि कम्पनी के पास बैक-अप के लिए सौ से ज्यादा लोग कतार में तैयार खड़े हैं। एक गया तो दूसरा हाजिर…।
हमारा देश अब खेतिहर मजदूरों का नहीं है, वरन् इन दिहाड़ी मजदूरों की थकी आँखों के सपनों से भीगी आँखों में बसता है। जिन आँखों में पहले कुछ कर गुजरने की चाह थी, उनमें अब बस किसी तरह से गुजर बसर करने का ही सपना बच रहा है। आपके दरवाजे पर आकर बस आपसे ‘५ स्टार’ देने की गुहार लगाते हैं ये बेचारे… लेकिन आप हैं कि टिप देना तो दूर, मुफ्त के ४ स्टार देना भी भारी लगता है। ऊपर से आप १० बात सुनाने के बाद शिकायत कर देने की धमकी भी दे देते हैं, क्योंकि ग्राहक ही भगवान् है। और भगवान् होने का सबसे आसान तरीका है किसी भी डिलीवरी ब्वाय पर रौब झाड़ देना।
जैसे घर के लिए कामवाली बाइयाँ जरूरी हैं, वैसे ही आज घरों की जरूरतों के लिए ये डिलीवरी ब्वाय जरूरी हैं। ये बेचारे टारगेट और इंसेंटिव की चाबुक की मार से दौड़ते समाज के मरियल से घोड़े जैसे दिखाई देते हैं। बाजारी प्रतिस्पर्धा की वेदी पर ये हर दिन हलाल होते हुए बलि के बकरे जैसे लगते हैं।
इनके लिए गर्मी, सर्दी और बारिश कुछ भी मायने नहीं रखती है। कम्पनी के टारगेट और आपकी अपेक्षाओं के २ पाटों के बीच ये पूरे दिन पिसते रहते हैं। पुराने समय में ‘बुल रेस’ हुआ करती थी, जो अब बदल कर १० मिनट की दौड़ का रोमांच हो गया है। जरा-सी देर हुई नहीं, कि आपको मिलती है मुफ्त डिलीवरी और उन्हें मिलती है मुफ्त में गाली। समाज की संवेदनहीनता ने इनके दर्द को अपना मनोरंजन बना लिया है। पुलिस ने रोक लिया तो चालान हो जाना होता है।
सरकार ने तो डिग्री देकर अपना पल्ला झाड़ लिया है, कि यदि गर्मी है तो उससे हवा कर लो और बारिश है तो उसे अपने सिर पर ओढ लो। यदि डिलीवरी ब्वाय के लिए जुगाड़ है तो सीधी भर्ती हो जाएगी। सिर पर हेलमेट, हाथ में मोबाइल और छोटी-मोटी कोई भी सवारी पर बैठ कर शहर की दौड़ में शामिल होकर चल पड़ो। एक्स-वाई-जेड के गुप्त स्टोर से दूध-ब्रेड से लेकर ऑनलाइन सर्विस में अंगुलियों की कारस्तानी से सब-कुछ निकलता है।
डिलीवरी ब्वाय का काम यातायात संकेत को कूदते-फांदते पार करना, फिर पुलिस की निगाह से बचते- बचाते किसी भी तरह से १० मिनट के अंदर आपकी डोर बेल बजाना होता है।
पहले सरकारी नौकरी मिल जाना वरमाला पहन लेने जैसा होता था, लेकिन अब किसी ऑनलाइन कम्पनी के स्टेटस पर अपना स्क्रीन शॉट चिपका कर ऐसा लगता है, कि जैसे सफलता का झंडा गाड़ दिया है। यह सफलता बिल्कुल इंस्टैंट नूडल्स जैसी लगती है, जैसे १० मिनिट में जीवन बदल डालो।
पहले के दिनों में इंम्प्लायमेंट एक्सचेंज के सामने बेरोजगार युवाओं की लंबी कतारें इस तरह से लगी दिखाई देती थीं, कि मानों वहाँ प्रसाद वितरण का कार्यक्रम चल रहा हो, परंतु यहाँ तो लिखा हुआ बोर्ड दिखाई दे रहा था कि ‘आओ और अपनी गरीबी हटा कर डिलीवरी ब्वाय बन जाओ।’
हमारा पड़ोसी कमबख्त कल्लू बी.ए. उत्तीर्ण करके कब से बेरोजगार बन यहाँ-वहाँ मुँह मार रहा था। ना ही नौकरी मिल पा रही थी, ना ही शादी के लिए रिश्ते आ रहे थे। बेचारा ३० पार करने वाला था। आखिर में सब तरफ से थक- हार कर एक पुरानी स्कूटी किसी तरह से जुगाड़ करके खरीद ली और फिर हेलमेट पहन कर अपनी पीठ पर बैग बाँध कर महानगर की इस अनवरत दौड़ में शामिल हो गया। अब तो उसके लिए सबसे ज्यादा बड़ा आशीर्वाद और वरदान ५ स्टार रेटिंग पाना था एवं सबसे बड़ा श्राप इसकी बैटरी का लो हो जाना था।
महानगर रात-दिन दौड़ रहा है, भाग रहा है और उसके साथ ही हाँफता हुआ हेलमेट पहने पीठ पर बैग बाँधे अपने सपनों और उम्मीदों को अपने दिल में कैद किए हुए मोबाइल पर नजरें टिकाए हुए ४ मिनट्स लेफ्ट देखते हुए डिलीवरी ब्वाय भी भागता जा रहा है। उसके मन में एक प्रश्न कौंध रहा है कि क्या वह अपने को भी कहीं डिलीवर कर सकता है… ज़िंदगी में, घर में या फिर सपनों में…?, लेकिन तभी ट्रिंग-ट्रिंग न्यू ऑर्डर रिसीव्ड और वह फिर से निकल पड़ता है अपनी नई मंजिल के लिए…।