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ढलती उमर

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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पढ़ा था किताबों में हमने कहीं पर,
कि ढलती उमर ख़ूबसूरत नहीं है
सफ़ेदी ये बालों में आँखों पर चश्मा,
पहले सी इनमें नज़ाकत नहीं है।

मगर ध्यान से देखा हमने ये पाया,
ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत बड़ी हैं
बालों पर डाई और होंठों पर लाली,
ये पहने अँगूठी नगीने जड़ी हैं।

चमक इनकी आँखों में अनुभव की लाली,
समेटे ये परिवार को एक रंग में
निखर आयी है इनके चेहरे की रौनक़,
ग़ज़ल-गीत ये गुनगुनाती हैं संग में।

हर महफ़िल में रौनक़ इन्हीं से तो आती,
बड़े ख़ूबसूरत ये क़िस्से सुनातीं
बनीं दादी-नानी ये प्यारी-सी परियाँ,
दया और ममता ये सब पर लुटातीं।

प्लानिंग अजब की गजब की ये करतीं,
ऊँची से ऊँची उड़ानें ये भरतीं
उमर दूसरों की ख़ुशी में बिताई,
मगर ख़्वाब अपने अब पूरे ये करतीं।

न रोको न टोको न बदलो हवाएँ,
महकने दो ख़ुशबू जहाँ भी ये जाएँ।
घटा बन बरसने दो यारों, न रोको,
पता क्या! नया गुल ये कोई खिलाएँ॥