ललित गर्ग
दिल्ली
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माँ अनमोल रिश्ता (मातृ दिवस विशेष) …

विश्व मातृ दिवस महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा एक ऐसा दिवस है जो मातृ शक्ति की सार्थक अभिव्यक्ति देता है। जननी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का तथा मातृशक्ति की अभिवंदना का यह एक स्वर्णिम अवसर है। सेवा और समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति मातृ-शक्ति ने समाज और राष्ट्र को सृजनात्मक एवं रचनात्मक दिशाएँ दी हैं। अपने त्याग और बलिदान से परिवार, समाज और राष्ट्र की अस्मिता को बचाने का हर संभव प्रयत्न किया है। यहाँ तक कि परिवार संस्था की आधारभित्ति भी मातृ-शक्ति के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई है। इन सब स्थितियों के बावजूद मातृ-शक्ति कब तक समाज की जड़ता में जकड़ी रहे: ?
माँ का त्याग, बलिदान, ममत्व एवं समर्पण अपनी संतान के लिए इतना विराट है कि पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो माँ के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दु:ख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली माँ के साथ बिताए दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। इसीलिए एच. डब्ल्यू. बीचर ने कहा कि-‘माँ का हृदय बच्चे की पाठशाला है।’
’मातृ देवो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है। ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह माँ भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। रामायण उद्गार आदि कवि महर्षि वाल्मीकी की यह पंक्ति- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘मातृशक्ति’ की पूजा होती आई है। वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में माँ की आराधना होती है।
ऐसा कहा जाता है कि भगवान हर किसी के साथ नहीं रह सकता इसलिए उसने माँ को बनाया। माँ हमारे जीवन की हर छोटी बड़ी जरूरत का ध्यान रखने वाली और उन्हें पूरा करने वाली देवदूत होती है। कहने को वह इंसान होती है, लेकिन भगवान से कम नहीं होती। वह ही मन्दिर है, वह ही पूजा है और वह ही तीर्थ है। यही कारण है कि समूची दुनिया में माँ से बढ़कर कोई इंसानी रिश्ता नहीं है। वह सम्पूर्ण गुणों से युक्त है। उसका आशीर्वाद वरदान है। ध्यान रहे, माँ का दिल दुखाने का मतलब ईश्वर का अपमान है।
संसार महान् व्यक्तियों के बिना रह सकता है, लेकिन माँ के बिना रहना अभिशाप की तरह है। इसलिए संसार उसके गुणगान करता है।
मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। माँ शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी है, जो अन्य किन्हीं शब्दों में नहीं होती। माँ नाम है संवेदना, भावना और अहसास का।
माँ के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं, किंतु वर्तमान परिवेश को देखते हुए यह सवाल अवश्य खड़ा होता है कि क्या आज की माँ जननी की भूमिका का सम्यक् निर्वहन कर रही है ? अथवा क्या वे समाजशास्त्रियों के इस अभिमत पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रही कि बच्चा नागरिकता का पहला पाठ माँ की वात्सल्यमयी गोद में सीखता है, जबकि वस्तुस्थिति तो यह है कि माँ की गोद उसे नसीब होती कहाँ है ? बाहर आते ही उसे अलग पालने में सुला दिया जाता है। सोता है तो दूध की बोतल उसके मुँह से लगा दी जाती है। उसका लालन-पालन या देख-रेख नर्स या आया द्वारा होती है अथवा बेबी केयर सेंटर में भेजकर कर्तव्यपूर्णता की छाप लगा दी जाती है। कितनी आधुनिक माताएँ तो ऐसी हैं जिन्हें अपने बच्चों से संवाद स्थापित करने का क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। करें भी कैसे ? उन्हें अपने निजी कार्यक्रमों से ही फुर्सत नहीं है। तब भला वह कब मीठी-मीठी प्रेरक लोरियाँ सुनाकर संस्कारों की सौगात सौंपें ? किस माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक मान-मर्यादाओं की अवगति दें ? मातृ दिवस माँ की अस्मिता के धुंधलाने के कारणों की पडताल करने का भी अवसर है।
माँ को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि माँ ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोसा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आए न आए, पर माँ हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अपने शावक को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। माँ एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, यही भाव उसे विधाता बनाता है।
महान् जैन आचार्य एवं अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य तुलसी की प्रेरणादायिनी पंक्तियाँ पठनीय ही नहीं, मननीय भी हैं-‘भारतीय माँ की ममता का एक रूप तो वह था, जब वह अपने विकलांग, विक्षिप्त और बीमार बच्चे का आखिरी साँस तक पालन करती थी। परिवार के किसी भी सदस्य द्वारा की गई उसकी उपेक्षा से माँ पूरी तरह से आहत हो जाती थी। वही भारतीय माँ अपने अजन्मे, अबोल शिशु को अपनी सहमति से समाप्त करा देती है। क्यों ? इसलिए नहीं कि वह विकलांग है, विक्षिप्त है, बीमार है पर इसलिए कि वह एक लड़की है। क्या उसकी ममता का स्रोत सूख गया है ? कन्या भ्रूण की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है। मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलकों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।