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फिल्मी धर्म बनाम आधुनिक पश्चिमी फ़िल्मों का प्रभाव

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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जब देश में धर्म का मौसम बार-बार बदल रहा हो, धर्म पर काले काले बादलों की घटा छाई हुई हो, तो क्या आवश्कता है लोगों द्वारा आपत्ति करने पर, वही गलती को दोहरा कर चिढ़ाया जाए। यह मानसिकता किस श्रेणी में होगी! कहना अति कठिन ही होगा।
मंदिरों में पौराणिक काली माँ सिगरेट, चरस, गाँजा आदि का भोग कर आधुनिक कतई नहीं बन सकती। वास्तव में फिल्में यथार्थ के बजाए कल्पना को लेकर जीवित रहती है, यह नकल है, आधुनिक पश्चिमी फ़िल्मों का प्रभाव है। समाज में ऐसे तथ्यों को प्रत्यक्ष रूप से उठा नहीं सकते तो फ़िल्मों के माध्यम से दिखाया जाता है। जैसे पश्चिमी फ़िल्मों में बड़े ही भद्दे चेहरे बना डरावनी फिल्में बनाई जाती है। बस, इस फिल्म में माँ काली का आधुनिक मानवीकरण किया गया है। फिल्म बनाने वाले ने धर्म को आहत किया और जोखिम लिया, क्योंकि फ़िल्म बनाने वाला प्रसिद्धि के अलावा एक पश्चिमी नज़रिया रख यह बताना चाह रहा था कि समाज में ऐसे व्यसनों वाली महिलाएँ कौन-सी श्रेणी में रखी जाती हैं, जबकि यह एक प्रकार से फिल्मी धर्म है।
अब प्रश्न यह उठेगा कि अन्य धर्म पर ऐसी फिल्में बनाने से क्यों कतराते हैं ? जब तक दूसरे धर्म के बारे में बारीकी से कमियों व मानव उत्थान संबंधी धार्मिक ज्ञान नहीं होता, तब तक कोई भी दूसरे धर्म से जुड़ी कमियों पर फ़िल्म नहीं बना सकता। यह फ़िल्म बनाने वालों के लिए बच निकलने का एक साधन हो सकता है।
राष्ट्र धर्म के नज़रिए से राजनेताओं से यही सवाल पूछा जाए कि विभाजन के बाद देश को हिन्दु देश क्यों नहीं बनाया ? यह पूछने की हिम्मत सभी में होनी चाहिए। क्यूँ धर्मनिरपेक्ष देश बनाया, जबकि धर्म के आधार पर ही तो भारत का विभाजन हुआ था। तब हिंदू २ धर्मों की जान को रो रहा था अब हरेक की जान को रो रहा है।
हालाँकि, समय काफी आगे बढ़ चुका है, लोगों की सोच भी परिवर्तित हो चुकी है, लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं कर सकते कि, कुछ लोगों द्वारा जानबूझकर आग में घी डाल कर समाज व धर्म को नीचा दिखाने की चेष्टा की जाती है।

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