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मन के मनके एक सौ आठ

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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रचना का हस्ताक्षर-भाग ४

कविवर को साहित्य पढ़ने में व्यस्त देख आलोचक ने कहा,-“देखो मैं पहले समझा चुका हूँ, “जो बात एक असाधारण और निराले ढंग से शब्दों द्वारा इस तरह प्रकट की जाए कि सुनने वाले पर उसका कुछ न कुछ असर ज़रूर पड़े,उसी का नाम कविता है। आज-कल हिन्दी में जो सज्जन पद्य-रचना करते हैं और उसे कविता समझकर छपाने दौड़ते हैं,उनको यह बात ज़रूर याद रखनी चाहिए। इस पद्य-रचयिताओं में कुछ ऐसे भी हैं जो अपने पद्यों को कालिदास,होमर और बाइसन की कविता से बढ़कर समझते हैं और बेचारे संपादक के ख़िलाफ़ नाटक, प्रहसन और व्यंग्यपूर्ण लेख प्रकाशित करके अपने जी की जलन शांत करते हैं।…”
कुछ क्षण रुक,कविवर के कंधे पर हाथ रखते हुए आलोचक ने पूछा,-“क्या तुम्हें साहित्य लेखन पढ़ते-पढ़ते नई-नई बातें सूझती हैं ? क्या साहित्य के शब्द तुम्हें अपनी ओर खींचने या बांधने लगते हैं ? क्या इसी प्रक्रिया में तुम्हारे विचारों से टकराते हैं ? और फिर क्या तुम्हारे मन में भी कुछ रचने का कौतूहल होने लगता है ?”
कविवर आलोचक के इन प्रश्नों से पहले हैरान हुए। फिर कहने लगे,-“अजीब व्यक्ति हैं आप भी। भला नई-नई बातों के बिना कवि ‘कवि’ या साहित्यकार कैसे हो सकता है ?“
आलोचक ने हल्की मुस्कान लेते हुए कहा,-“ आप नाराज़ मत होइए,फिर आप सही दिशा में ही हैं।”
कविवर इसी बीच चाय-पानी की टेबल को आलोचक की ओर सरका दिया।
आलोचक टेबल की ओर हसरत भरी दृष्टि से देख अपनी बात जारी रखते हुए कहने लगे, “मित्र! ‘कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए कल्पना की बड़ी ज़रूरत है,जिसमें जितनी ही अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अधिक कविता लिख सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए। नये-नये भावों की उपज जिसके हृदय में नहीं,वह कभी अच्छी कविता नहीं लिख सकता। ये बातें प्रतिभा की बदौलत होती हैं।इसलिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है।…”
कविवर बोले,-”मैंने कहीं तो पढ़ा है कि प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है।”
आलोचक थे ईश्वर के प्रति अत्यधिक आस्था रखने वाले, -“हाँ, इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीब निराले ढंग से बयान करता है,जिसे सुनकर सुनने वाले के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख,दु:ख आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि वह कवि नहीं है,उसकी पहुँच यहां से वहाँ तक कभी हो सकती है।…जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य और प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना ही अधिक ज्ञान होता है,वह उतना ही बड़ा कवि भी होता है।“
कविवर जी,-“आप यह लीजिए! और बताइए आज मेरे करकमलों से कितनी स्वादिष्ट बनी है…यदि कोई कमी है तो नि: संकोच मत ग्रहण कीजिए, श्रीमान जी! मुझे प्रसन्नता होगी,मैं बिना किसी दबाव के कार्य करता और करवा सकता हूँ।”
आलोचक को महसूस हुआ कि शायद मैं उनकी बातों को अनदेखा कर रहा हूँ,और अपनी धुन से कहने लगे,’करते रहिए,ऐसे ही प्रयास करते रहिए अपनी रचनाओं के प्रति भी। सुन रहे हैं न आप!’
“जी..जी…, “ सुन रहा हूँ। आपकी बातों पर अगर आज गौर न करूंगा,भविष्य का साहित्यकार होने का स्वप्न… स्वप्निल बन रह जाएगा।

(प्रतीक्षा कीजिए अगले भाग की…)

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