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महत्वपूर्ण सवाल ‘हम कब सुधरेंगे ?’

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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श्रद्धा हत्याकांड…

अभी कुछ दिन से जो पढ़ने में आ रहा है, वह यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या
हमारी पीढ़ी अपने बच्चों के लिए सही फैसले ले रही है ? बात कड़वी लगे तो लगे, पर आज इन हिन्दू बच्चियों की इस हालत की जिम्मेदार इनकी वो तथा कथित माँ तो हैं ही, लेकिन कुछ हद तक पिता भी है। कारण यही है कि, ये बचपन से इन्हें वो संस्कार देते ही नहीं, जो मिलना चाहिए।
यह सही है कि मर्द अगर बाहर कमाने गया है, दिनभर खट रहा है तो ऐसे में घर में बच्चा ज्यादा से ज्यादा समय अपने माँ के साथ बिताता है और यदि दोनों ही कमाने गए तो पीछे…?
अगर बच्चे सही-गलत, धर्म-अधर्म का फर्क करने में असफल हैं और उन्हें सही कौन है एवं कौन गलत है, इसका सलीका १८ साल तक का होने पर भी नहीं आ पाया, तो यकीनन इसमें माँ (बच्चे की प्रथम गुरु माना जाता है) की गलती सबसे बड़ी मानी जाएगी, लेकिन बाप की भी थोड़ी-बहुत अवश्य मानी जाएगी।
सबसे दुःखद पहलू यह है कि, आजकल माँ-बाप दोनों दिखावे-खुलेपन के नाम पर लड़के -लड़कियों को स्वछन्द विचरण के छूट देने के पक्षधर हो अपने अपने माँ-बाप अर्थात दादा-दादी या नाना-नानी की सलाह को दकियानूसी करार दे मानते नहीं हैं।
नई उम्र की हिन्दू माँ (सब नहीं, पर ९५ फीसदी) खुद भी खयालों वाली दुनिया में जी रही हैं। यह बॉलीवुड की धर्मनिरपेक्षता से पीड़ित हैं, और अपने बच्चों के अंतर्मन में भी वही सब भर रही हैं। उन्हें बच्चियों को धर्म-कर्म सिखाना पिछड़ापन और गंगू काठियावाड़ी बनाकर शीला-मुन्नी जैसे फूहड़ गानों पर छोटे कपड़े पहनाकर नचवाना बहुत गर्व से भरा काम लग रहा है। श्रद्धा वाला मामला हिन्दू समाज के अभिभावकों की इन्हीं गलतियों का नतीजा है।
श्रद्धा का यह जबाब कि, वो बालिग है और उसे अपने फैसले लेने का हक है, यह साबित करता है कि बच्चे घर कहिए या समाज में जो कुछ भी देखते-सुनते हैं, उसी का असर है।
सही मायने में पढ़-लिख कर अति बुद्धिमानी की बीमारी, माँ-बाप द्वारा न दिए गए संस्कार तथा बॉलीवुड द्वारा दिया गया अश्लीलता का कोढ़ हमारे समाज को बर्बाद कर रहा है।
विडम्बना यह है कि, आज बच्चों को तो छोड़िए, उनके अधिकांश माँ-बाप को भी गीता का १ भी अध्याय कण्ठस्थ नहीं होगा, जबकि अमूमन सारे फिल्मी गाने कण्ठस्थ उन्हें ही नहीं, उनके बच्चों को भी होंगे। अर्थात हमारा इस कदर फिल्मीकरण हो गया है कि इसके चलते ही धर्म-कर्म के प्रति आस्था दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। इस उपरोक्त पर जब सब तरह से सोचते हैं, तब एक ही प्रश्न दिमाग में घूमता है कि हम कब सुधरेंगे…?

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