डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस विशेष…
जब मैं मातृभाषा, स्वभाषा, राजभाषा या राष्ट्रभाषा की बात करता हूँ तो मेरे सामने भाषा नहीं देश होता है। किसी देश के साहित्य-संस्कृति, धर्म-आध्यात्म और सदियों से अर्जित ज्ञान-विज्ञान को बचाना या बढ़ाना है तो, सर्वप्रथम जरूरी है कि अपनी मातृभाषाओं और बोलियों आदि को आत्मसात करें। जिस प्रकार नदी के सूखने पर उसमें रहने वाले समस्त जीव स्वत: मिट जाते हैं, वैसे ही अगर भाषा गई तो इनमें से कुछ भी बचना संभव नहीं। इस पर सभी देशवासियों का विचार करना जरूरी है।इस वर्ष भी देश-दुनिया में मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा है। भारत में तो और भी जोर-शोर से मनाया जा रहा है। सही बात है, भारत में इसकी जरूरत भी अन्य देशों से बहुत अधिक है, क्योंकि यहाँ पर धीरे-धीरे देश की विभिन्न भाषाओं सहित विभिन्न बोली-भाषाएँ भी अंग्रेजी के आक्रामक प्रसार के चलते निरंतर हाशिए से बाहर होती जा रही हैं। हर दिन कुछ मिट रहा है, सिमट रहा है।
भारत में संघ की घोषित राजभाषा हिंदी के नाम पर तो देश में तरह-तरह के अजीबो-गरीब इतने कार्यक्रम होते हैं कि पूरी दुनिया में किसी भाषा के लिए इतने कार्यक्रम नहीं होते। विचार की बात यह है कि, इनमें से कितने ऐसे कार्यक्रम होते हैं जो वास्तव में अपनी भाषा को आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त करने में सार्थक भूमिका निभाते हैं ? लंबे समय तक सरकारी तौर पर मनाए जाने वाले हिंदी पखवाड़ों का भी निरंतर गवाह हूँ और अतिथि या निर्णायक आदि की भूमिका में भी आमंत्रित किया जाता रहा हूँ। वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर हिंदी से जुड़े ज्यादातर अधिकारी अक्सर इस बात पर विचार ही नहीं करते कि, इनसे भाषा का प्रयोग कैसे और कितना बढ़ेगा ?, पर ऐसा ही चलता आ रहा है। अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर भले ही इतनी नौटंकी न हो, लेकिन वहाँ भी कुछ ठोस होता तो नहीं दिख रहा। जरूरी है कि जो भी हो, उससे कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग का मार्ग प्रशस्त हो।
गंभीरता से विचार करता हूँ तो लगता है कि जो कार्यक्रम व प्रतियोगिताएँ आदि शिक्षण संस्थानों में होने चाहिए, वे सरकारी कार्यालयों में होते हैं। सरकारी कार्यालयों और संस्थानों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने और कामकाज करवाने के लिए जिस प्रकार के निर्णय आदेश और कार्यान्वयन होना चाहिए, वह अक्सर दिखाई नहीं देता। राजभाषा कार्यान्वयन को लेकर कार्यालय में तिमाही और छमाही विभिन्न तरह की बैठकों में अक्सर वही बातें नहीं होती जिसके लिए भी बैठकें होती हैं, ज्यादातर बैठकों में यही देखा है। कई बार तो कुछ बैठकों में पूछना पड़ा कि यह बैठक किसलिए बुलाई गई थी ? उत्तर आता है हिंदी में काम बढ़ाने के लिए। तो किस अनुभाग, विभाग में कौन-सा काम नहीं हो रहा, या हो सकता है, उसकी तो बात ही नहीं हुई, फिर कमी दूर करने का कोई निर्णय भी नहीं हुआ। जब निर्णय ही नहीं हुआ तो उसकी जिम्मेदारी किसी को सौंपे जाने की तो बात ही नहीं। तो फिर क्या बढ़ाएँगे, कैसे बढ़ाएँगे ? केवल कुछ कार्यक्रमों की बात करके, हिंदी में काम बढ़ाया जाए, यह कहकर बैठक समाप्त कर दी जाती है। इसलिए पूरा देश जानता है कि आँकड़े बढ़ते जा रहे हैं और दफ्तरों में क्या होता है, यह किसी से नहीं छिपा है, लेकिन हिंदी के नाम पर ढोल-ढमाका होता रहता है। यदि गंभीरता से चीजें होती तो ७५ साल में क्या होता, जो हिंदी में नहीं हो रहा होता ? हिंदी से जुड़े अधिकारियों की भी अपनी विवशताएँ हैं। हिंदी में काम करने-करवाने की कोशिश करेगा, वह प्रताड़ना भी सहेगा। जो केवल प्रबंधित करेगा, वह हलवा-पूड़ी और पदोन्नति सब पाएगा। जब सरकार का डंडा होगा तो बड़े से बड़े अधिकारी को भी समझ आएगा, वरना हिंदी अधिकारी क्या कर पाएगा।
हिंदी पखवाड़े के आयोजनों में अक्सर देखा है कि निबंध, टिप्पण-प्रारूपण प्रतियोगिताएँ या भाषण प्रतियोगिता आदि में भाग लेने के लिए कार्मिक तक नहीं मिलते। हिंदी अधिकारी बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों को तैयार करता है। फिर होता यह है कि, किसी प्रकार कोई कुछ भी लिख दे तो पुरस्कार दे दिया जाए। और फिर यह कि सबको प्रोत्साहित करना है तो सबको किसी न किसी नाम पर प्रसाद बांट दिया जाए। हिंदी में बिना कुछ किए पुरस्कार पाने वाला कार्मिक मुस्कुराता हुआ अपनी सीट पर जाकर अंग्रेजी में काम शुरू कर देता है।
राजभाषा विभाग में नौकरी करते हुए सक्रियतापूर्वक राजभाषा कार्यान्वयन के लिए कोशिशें करने पर एक बार मुझे मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने बड़े अपनेपन से समझाया, ‘अरे यार हिंदी राजा भाषा है, ठीक है ना ? तो राजा कुछ करता है क्या ? सरकारी दफ्तरों, कंपनियों में जाओ, चाय-वाय पीयो, मज़ा करो, किस चक्कर में पड़े हो यार।’ लेकिन, मुझ जैसा व्यक्ति (जो कॉलेज के समय से ही भाषा के लिए संघर्षरत रहा हो) वह कैसे स्वीकार कर पाता। नतीजा यह कि, नतीजा भुगतना पड़ा। ठीक इसी प्रकार एक वरिष्ठ अधिकारी के सजातीय बंधु को गलत तरीके से इंदिरा गांधी राजभाषा राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं दिलवाने पर भी खामियाजा भुगतना पड़ा। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने भाषा संबंधित दायित्व को निभाने का प्रयास किया और नतीजा भुगता। सरकारी धन-बल से बड़े-बड़े आयोजन करवाने वाले, एक दूसरे की कमर खुजाने वाले पुरस्कारों से महिमा मंडित होते रहे। हिंदी में काम न करने या न करवाने के कारण किसी को कभी कोई समस्या हुई हो, ऐसा कभी नहीं देखा। सरकार की नीति और नीयत से आगे कोई अधिकारी जा भी तो नहीं सकता। अगर वहाँ बदलाव हो जाए तो सब बदल जाएगा। सरकारी कार्यालयों व संस्थानों में भाषा के नाम पर नाचने, गाने और बड़े-बड़े कार्यक्रम करने की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी।
मुझे लगता है कि हिंदी दिवस, मातृभाषा दिवस या अन्य भारतीय भाषाओं के दिवस मनाने के सर्वश्रेष्ठ मंच हैं हमारे शिक्षण-संस्थान। यही वे जगह हैं जहाँ से कोमल मन में अपनी भाषा के प्रति अपनत्व का भाव उत्पन्न होता है। वहीं सही तरीके से पारितोषिक और प्रशंसा की अपेक्षा में विद्यार्थी प्रतियोगिताओं में भाग लेकर अपने भाषा-कौशल को भी विकसित करते हैं। मैंने ऐसे अनेक वैज्ञानिक अधिकारियों, विज्ञान क्षेत्र के विशेषज्ञों आदि को देखा है जो विदेशों में रहकर भी हिंदी अथवा अपनी मातृभाषा के प्रति समर्पित भाव से लगे हुए हैं। उसके पीछे का मूल कारण है, शाला-महाविद्यालय के समय उनके मन में मातृभाषा के प्रति उत्पन्न किया गया प्रेम।
यहाँ इस बात पर भी गौर किए जाने की आवश्यकता है कि भाषाई आयोजन केवल भाषा-विशेष के विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रहने चाहिए। भाषा केवल उन विद्यार्थियों की नहीं है, जिनका वह मुख्य विषय है। भाषा तो सबकी है, चाहे वे किसी भी विषय के विद्यार्थी क्यों न हों। केवल हिंदी के विद्यार्थियों को बैठाकर हिंदी की बात कहने से बात नहीं बनेगी, भाषायी कार्यक्रमों में सभी विद्यार्थियों को जोड़े जाने की आवश्यकता है। अक्सर यह देखने में आया है कि, हिंदी संबंधी कार्यक्रमों में केवल हिंदी के विद्यार्थी और अध्यापक व प्राध्यापक ही उपस्थित होते हैं, पर लेकिन पिछले दिनों मेरा कई महाविद्यालयों में व्याख्यान के लिए जाना हुआ। इनमें से कुछ ने सभी विद्यार्थियों और अध्यापकों आदि को ऐसे कार्यक्रमों में शामिल किया। मुझे लगता है कि ऐसे विद्यार्थियों को संबोधित करना अधिक लाभकारी रहा, जिनके मन में अब तक मातृभाषा के अंकुर नहीं पड़े थे। उनसे संवाद करके मन को अत्यधिक संतुष्टि प्राप्त हुई। आशा है कि, अन्य शिक्षण संस्थान भी इस पर ध्यान देंगे।
अब बात करते हैं मातृभाषा दिवस आदि पर या सामान्यत: आयोजित होने वाली भाषा संबंधी संगोष्ठियों और ई-संगोष्ठियों आदि की। ई-संगोष्ठियों में तो फिलहाल ज्यादा खर्च नहीं होता सरकारी या संस्थागत बजट से कार्यक्रम आयोजित करना तो फिर भी उतना कठिन नहीं है, सहभागियों व श्रोताओं को जोड़ना भी अपेक्षाकृत सरल है। ऐसी संस्थाएं जिनके पास न तो आर्थिक स्रोत हैं न ही कोई लाभ पहुंचाने वाली बात, उनके लिए तो भाषा का कार्य करना संगोष्ठियों आदि का आयोजन अत्यंत दुष्कर कार्य है। लेकिन फिर भी यथासंभव किसी न किसी प्रकार कुछ प्रयास करने चाहिए।
आज किसी ने सोशल मीडिया पर शिकायत की कि कुछ लोग ही हमेशा अपनी बात कहते हैं दूसरों को तो कहने का मौका ही नहीं मिलता ? मेरे मन में दूसरी बात आती है, प्राय: कुछ वक्ता मूल विषय से हट कर अपने कार्य या संस्था के कार्य-क्षेत्र आदि की बातें करने लगते हैं, इससे मूल विषय पीछे छूट जाता है। यहाँ वक्ता के पद-कद से महत्वपूर्ण होना चाहिए विषयगत मौलिक चिंतन और प्रस्तुति। मेरी दूसरी चिंता प्रतिभागियों को लेकर है। अनुभव यह रहा कि ऐसी ज्यादातर संगोष्ठियों में प्रायः हिंदी के मंच पर हिंदी वाले, हिंदी वालों से हिंदी पर संवाद करते हैं। जागे हुए एक-दूसरे को बार-बार झकझोरते हैं तो इसका क्या लाभ ? जगाना तो उन्हें है, जो सो रहे हैं, पर कोई क्या करे, दूसरे आते नहीं। समस्या गंभीर है। ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की ओर से कई बार इसका रास्ता भी निकाला और उसका लाभ भी हुआ। कई सामाजिक संस्थाओं या वर्गों को जोड़कर कार्यक्रम आयोजित किए गए तो उनमें एक ऐसा वर्ग आया जिसे अपनी मातृभाषा से प्रेम तो है, लेकिन क्या करना है, और क्यों करना है, पता नहीं था। उसने इस बारे में कभी सोचा या सुना नहीं। एक बार तो हमने उद्योगपतियों को, एक बार व्यापारियों आदि को वक्ता के रूप में आमंत्रित करके अनेक प्रश्न उनके सामने रखे, उनसे बुलवाया भी, ताकि वे जगें भी, अपने लोगों को जगाएँ भी और इस दिशा में कुछ करें भी। इसलिए मेरा यह आग्रह कि भाषा संबंधी विचार-विमर्श व संगोष्ठियों आदि में समाज के अन्य वर्गों को भी येन-केन प्रकारेण जोड़ा जाए। फिर भले ही वे धार्मिक संस्थाएँ हों, सामाजिक संस्थाएँ हों, वैज्ञानिक या तकनीकी विशेषज्ञों के समूह हों, वकील या न्यायधीश हों, व्यापारी वर्ग हो या घरेलू महिलाएँ। जब इस प्रकार के वर्ग अपनी भाषाओं को अपनाएँगे तो, जाकर कुछ बात बनेगी।
तमाम कठिनाइयों व समस्याओं के बावजूद भी हमें बहाव के विपरीत आगे बढ़ते हुए अपनी भाषाओं को बचाने और आगे बढ़ाने के अभियान में लगे रहना होगा। ध्यान रखना होगा कि ऐसे कार्य या कार्यक्रम किए जाएँ जो वास्तव में मातृ-भाषाओं के मार्ग को प्रशस्त करते हों। कार्यक्रम के पश्चात कार्यक्रम का मूल्यांकन भी इसी दृष्टि से होना चाहिए। प्रत्येक भारतवासी, प्रवासी भारतीय व भारतवंशी, जो जहाँ भी है इस दिन अपने स्तर पर अपनी मातृभाषा की आरती नहीं, इसे अपने और दूसरों के हृदय में उतारें।
