राधा गोयल
नई दिल्ली
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सामाजिक समस्या….
“दादी! एक बात समझ नहीं आती। हम इतनी मेहनत से दिन-रात एक करके पढ़ते हैं। नौकरी के लिए ना ? अच्छी नौकरी मिलती नहीं। मिलती है तो अपने देश से बाहर। मैं तो अपने देश में रहकर ही कुछ करना चाहता हूँ।”
“यह तो बहुत अच्छी सोच है बेटा। यही सोच होनी चाहिए। अब धीरे-धीरे आज के युवकों की सोच बदल रही है। हमारे देश के ही कई युवक अब अपने देश और गाँव की प्रगति के बारे में सोच रहे हैं। केवल सोच नहीं रहे, बल्कि कर रहे हैं। अगर तुम जवान लोग ठान लो तो क्या नहीं कर सकते। चाह होगी तो सकारात्मक बदलाव आकर रहेगा। मुश्किल यह है कि आजकल के बच्चों में ‘सब्र’ नहीं है। एक झटके में आसमान छूना चाहते हैं, जबकि सब्र का फल मीठा होता है।”
” दादी! मैं भी कुछ करना चाहता हूँ, पर मैं एक अकेला क्या कर सकता हूँ ?”
“अकेला क्यों ? अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर कुछ ऐसा ही काम करो, जैसा राजस्थान के एक गाँव कैरवाली में कुछ युवाओं ने किया।”
“ऐसा क्या किया उन्होंने ?”
“कोरोनाकाल तो याद है ना ?”
“भला उसे कौन भूल सकता है दादी ?”
उस दौरान कई युवकों की अलग-अलग कारणों से नौकरी छूट गई थी। गाँव लौटकर निठल्ला न बैठकर उन्होंने कुछ करने की ठानी। उन सबने मिलकर सोच-विचार करने के बाद एक समिति बनाई। कई युवा प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे हुए थे। हाॅस्टल व पी.जी बंद हो गए। खाने-पीने की असुविधा के कारण वे विद्यार्थी भी गाँव लौट आए थे। गाँव लौट तो आए, लेकिन पढ़ने का माहौल नहीं मिल रहा था।”
“फिर पढ़ाई कैसे की ?”
“जो लोग नौकरी छोड़कर आए थे या छूटी थी, उन सबने कुछ करने की ठानी। उन्होंने 15 लोगों के साथ मिलकर एक टीम बनाई और गाँव में ही पढ़ाई और खेल का बेहतर माहौल तैयार करने का फैसला किया।”
“इसमें तो बहुत टाइम लगा होगा ? कैसे किया ये सब ?”
“मैंने तुझे अभी कहा था ना कि, कुछ करने के लिए हिम्मत और सब्र रखना पड़ता है। उन्होंने हिम्मत और सब्र से काम लिया। सबसे पहले तो एक बंद हो चुके विद्यालय के जर्जर भवन को श्रमदान से ठीक करवाया। लायब्रेरी शुरू की, ताकि गाँव के युवा दिनभर पढ़ाई कर सकें। फिर शाला के खेल मैदान को समतल करके ट्रैक बनाया। एक कमरे को फिटनेस सेन्टर में बदल दिया।”
“वो क्यों ? फिटनेस सेन्टर की क्या जरूरत थी ?
“ताकि सेहत पर भी फोकस रहे। इसलिए। सेहत ठीक होगी, तभी तो कुछ कर सकते हैं।”
“और सुन, अभी वो यहीं नहीं रुके। फिर उन्होंने मैदान में बच्चों के लिए झूले व बैठने के लिए बैंच भी लगाईं। उनका नेतृत्व करने वाला था दीपक बुड़ानिया। मैदान के चारों तरफ खूब सारे पौधे भी लगाए।”
“पर इसके लिए पैसे कहाँ से आए ?”
“इन युवकों की ऊर्जा को देखकर गाँव के बुजुर्ग व जनप्रतिनिधि भी इस पहल में सहयोग करने लगे। गाँव की ‘पर्यावरण शिक्षा खेल समिति’ बनाई। उनके सदस्य आपसी सहयोग से खर्च के लिए राशि जुटाते हैं। शुरुआत में पूरे काम के लिए ₹ २ लाख जमा किए, जिससे शाला भवन मरम्मत व अन्य सुविधाएँ जुटाई गईं। समिति के नौकरी करने वाले सदस्य हर माह ₹ ४०० सहयोग देते हैं। बेरोजगार सदस्यों से साल में एक बार ₹ ३६५ लिए जाते हैं। लाइब्रेरी में उन युवाओं के नोट्स व किताबें रखवाई हैं, जिनकी नौकरी लग चुकी है। अब तो नौकरी भी ऑनलाइन हो रही है। पैसा खाते में आ जाता है।
समिति का पूरा रिकॉर्ड ऑनलाइन है। यूट्यूब पर अब तक हुए कार्यों की पूरी जानकारी व वीडियो अपलोड हैं।
लायब्रेरी में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए पूरा माहौल रहता है। युवा एक-दूसरे से महत्वपूर्ण विषयों और मुद्दों पर चर्चा करते हैं। मॉडल पेपर और परीक्षाओं की तैयारी के लिए जरूरी स्टडी मटेरियल भी लाइब्रेरी में ही उपलब्ध करवाया जाता है। अब तू ही बता, यह काम ज्यादा अच्छा है या विदेश जाकर नौकरी करना ?”
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