शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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निर्लिप्त दृष्टि से देखा जाए तो समय और सभ्यता में जो मनोवृत्ति उद्धृत हुई है, वह विच्छिन और द्विखंडित है। भारत में एक समय ऐसा था, जब यवनों की सभ्यता को अपनाने के बारे में सोचना दुष्कर्म समझा जाता था। उनके समय में भारतीय पारंपरिक सभ्यता में निर्मूल परिवर्तन हुआ। कालान्तर में अंग्रेजी आगंतुक के चरित्र ने हमारी महान उच्च शिखर पर पहुंची सभ्यता को नई शिक्षा प्रणाली के माध्यम से अपनी ओर आकर्षित किया। खुले प्रकृति के प्राँगण में प्रज्जवलित व शनै:शनै: विकसित होती शिक्षा बड़े-बड़े शहरों में चार दीवारों में अधिष्ठाता बनने लगी। भारतीय समाज का अधिकांश वर्ग शिक्षा के प्रति उदासीनता से भरा था। भारतीयों में मन की रसिकता और विद्वत्ता के बीच खाई-सा पसरा हुआ था, जिसका लाभ अंग्रेजी सत्ता ने विश्वविद्यालयों का निर्माण अपने हितोद्देय को रख कर किया। शिक्षित वर्ग और भारतीय संस्कृति को बर्क के मन्तवय, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, शैले, मार्क्स, लेनिन की विचारधाराओं से राजनीति और समाज दोनों प्रभावित हुए। भारतीय अशिक्षित जनता भारतीय शिक्षित वर्ग के प्रवचनों में यह मानकर रिझी जा रही थी कि, अंग्रेजी सत्ता से बातचीत कर एक न एक दिन स्वतंत्रता प्राप्ति हो जाएगी। नित होते आंदोलनों ने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी स्थापित किया। मुस्लिम शासकों के अत्याचारों के बनिस्बत आक्रांत जनता को अंग्रेज़ी सत्ता के अत्याचार थोड़े कम दिखाई पड़े। भारत का धन दोनों ही अपने-अपने तरीक़े से लूट-लूट कर ले जा ही चुके थे और धन एकत्रित कर अपने देश का विकास वैज्ञानिक तौर से कर समृद्धिकाल को समर्पित कर रहे थे। विदेश से वापस आए शिक्षित भारतीय लोग देश हित में बलिदान देना अपना स्वाभिमान व शौर्य तुल्य समझने में बढ़-चढ़ कर आगे आ रहे थे। जनआंदोलन करवा कर जनता को जागरूक करने की तनिक कसर भी न छोड़ रहे थे। दूसरी ओर अंग्रेज़ी शासक पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था और पारंपरिक रीति-रिवाजो व धार्मिक नियमों- बाल विवाह, सती प्रथा में रोकथाम कर नई भारत की भूमि पर परोस मानवीय संवेदना के संसार में अपनी श्रद्धा-आस्था का बीजारोपण भी कर रहे थे। भारतीय समाज व सभ्यता में यह नया उन्माद आज तक गहरी जड़ें जमाए हुए दिन-प्रतिदिन वृद्धि कर रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति तक के समय में भारतीय राजनीति व सामाजिक स्तर पर अनेक पारंपरिक रीति-रिवाजों व धार्मिक नियमों से विमुख हो चुका था। अंग्रेज़ी विचारधारा को शक्तिशाली मानकर भारतीय समाज में परिवर्तन की नई दिशा का आरंभ हुआ, जिसमें नई एकल परिवार प्रणाली की ओर उन्मुखता, नैतिक जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने की ललक, प्रेम विवाह की ओर झुकाव, धर्म के प्रति अलगाव, जातिय भेदभाव को तिलांजलि देना, नारी सम्मान, शिक्षा के महत्व को समझना और अन्य समस्त निरुद्देश्य प्रचलित तथ्यों को अस्वीकार करने आदि की प्रवृत्ति में तीव्रतम परिवर्तन हुआ। यानि कि अंग्रेजी सभ्यता में विदित उन सारे गुणों ने भारतीय सभ्यता व संस्कृति को पौराणिक गतिविधियों को त्याग देने की सहज मनोवैज्ञानिक व्यवस्था बनाई।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति में अपार संपदा शक्ति है श्रद्धा-विश्वास से बाह्य सभ्यता के गुणों कारण-अकारण हृदयंगम करने की, जिसका प्रमाण और प्रभाव आज के समाज, राजनीति व धर्म में भी दृष्टव्य हो रहा है। नागरिकीकरण ने ‘सभ्य’ शब्द को उस शिष्टाचार के कटघरे में खड़ा कर दिया है, जहां आधुनिक वर्तमान पीढ़ी नागरिकीकरण
को अपना आधार व आदर्श मानती है, जबकि भारतीय चिन्तन ‘सभ्य’ शब्द को मानव जीवन शैली के प्रत्येक क्षेत्र की गतिविधियों से जोड़कर परिणित हुआ है। अर्थात् नैतिक मूल्यों व कर्तव्यों को समन्वित कर व्यक्ति, परिवार, समाज व देश के लिए जीवंतता प्रदान करता है, जबकि पश्चिमी सभ्यता में इसका प्रमाण मानवीय उदारता के नाम पर प्रचलित धर्मांतरण तक सीमित है।
सदाचार का पठन करने वाले भारतीय सामाजिक पारंपरिक रीति-रिवाज व धार्मिक ह्रास का कारण मुख्यतया मशीनीकरण मनोवृत्ति है। न्यायप्रिय, ब्रह्मचारी आचरण, अनुशासन भौतिक युग में सुख के बजाए दुख के कारण बनते जा रहे हैं। नई पीढ़ी का आर्थिक भविष्यफल न तो सूर्योदय व सूर्यास्त से चलता, न ठहरता है। विश्वभर में हो रहे सामाजिक परिवेश में परिवर्तन मसले नए समाधान की तलाश में जुटे हैं। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात अधिकांश अशिक्षित जनता के पास २ समय का भरपेट खाने का अभाव रहा, जो आज तक जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा है। सरकारों पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति और जाति व धर्म में पहले से ही विभाजित कर समाज व देश को क्षति पहुंचाई है। अंग्रेज़ी सभ्यता का सभ्य कहलाने का सिलसिला मानव आदर्शों में अधिकाधिक धनार्जन तक ही सीमित रह गया है। अन्यथा आज क्यों उन्हें आवश्यकता हुई हिन्दू कृष्ण या राम भक्ति में रमने, पहनावे से लेकर खान-पान तक की ओर बढ़ती जिज्ञासा, संयुक्त परिवार प्रचलन अपनाने और अपने देश को पूर्णतया त्याग भारत में ही रहने की तत्परता आदि तथ्य सभ्यता के संक्रमण प्रवृत्ति को दर्शाते हैं।
विश्व के विकसित देशों में द्वितीय युद्ध के बाद से ही प्रगति आरंभ हुई, जबकि भारत औपनिवेशिकवाद के दलदल में ही संघर्ष करता रहा। मानवाधिकार व मानव कल्याण संबंधी धारणाओं को पिछले कई वर्षों से जनता देख और भोग रही है, जबकि होना यह चाहिए था कि देश उन्नति में शासन-व्यवस्था उदार नीतिकरण को शुद्धता के साथ बनाने के साथ-साथ लागू करने का प्रयास भी करती, लेकिन शासन व्यवस्था जनता की मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण करने के बजाए भ्रष्टाचार व घोटालों में आवश्यकता से अधिक लिप्त और उन्मुख हुई। अधिकांश राज्यों के पिछड़ेपन का कारण विदेशी शासकों की भांति लागू न करना ही माना जा सकता है।
‘सभ्य’ बनने की अंग्रेजी चाह ने भारतीय सभ्यता पर भारी पत्थर ही रख दिया है, जिसे अब किसी भी हालात में हिलाना नामुमकिन -सा लगता है। प्रश्न हमारे सामने मुँह बाए ज्यों का त्यों खड़ा है कि, भारतीय क्यों अपनी सभ्यता को तज पश्चिमी सभ्यता को अपना सभ्य बनने में गौरवान्वित अनुभव करते हैं ?
मानो या न मानो,
हमें आदत हो चुकी है अब
‘सभ्य’ समाज व देश
पश्चिमी सभ्यता के चश्मे से बनाने की,
जाति-धर्म हैं न अनेक यहां,
समन्वय दोनों में कहां विलुप्त है ?
ज्ञात नहीं,
समय व्यर्थ न कर।
नई पीढ़ी गढ़ रही है,
‘नया इतिहास’
विज्ञान युग में परचम लहराने की॥