शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
*************************************
आज का विषय बेहद ही रोचकता से भरपूर है। गोष्ठी में जब महोदया ने कहा, -“सद्भावना युक्त भावना से अपने विचार बिन्दु प्रेषित कीजिए। हमें सद्भावना और मानवता का जागरण के लिए ही साहित्य सेवा में कार्य करना है। प्रेम और खुशी को बाटँना है।”
लेखक होने के नाते स्वयं को किसी परिधि से बांधना या बंधन में रहना असहनीय का परिचय देता है और परिणाम अति कटु। अनायास ही उठा प्रश्न मन को उद्वेलित किए बिना न रह सका। सो विचार में गोते लगा-लगा खोजने लगा, “सद्भावना व मानवता के जागरण की सीमाएं कहां तक निश्चित की गईं हैं ? यह प्रश्न समकालीन विषयों के साथ अति महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है, किंतु इसकी रूपरेखा भी हमारे प्राचीन साहित्य में विद्यमान है। वैसे, समय के साथ-साथ सब कुछ बदल रहा है तो विचारों के अदान-प्रदान में लगाम लगाना उचित नहीं है।”
आदरणीया ने सपाट अपने अनुभव के दायित्व से घोषित कर कहा,-“सद्भावना और मानवता की सीमा अनन्त है। जितना फैलाए और जगाए उतना ही आनंद देती है।” विचार करने पर शब्द-शब्द सत्य के निकट ही पाया। ऐसे ही विचारों को अनगिनत साहित्यकार व धार्मिक रचयिताओं ने व्यक्त किया है।
मैंने आज रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक निबंध में पढ़ा जो उन्होंने अपने तत्कालीन समय से उद्विग्न हो कर लिखा,- “एक दिन हमारा देश अवश्य स्वतंत्र होगा। यह भविष्यवाणी सत्य भी साबित हुई, भले ही देश के टुकड़े-टुकड़े होने पर।” मेरे मन में शीघ्र ही एक विचार उभरा,-‘सत्य पुरुष ही सत्य लिख सकते हैं। ओह! काश! गुरुजी आप यह लिख जाते, -“आज के बाद संपूर्ण मानवजाति के विचार एक जैसे समान होंगें।” क्योंकि लेखक जिस क्षण रचना लिख रहा होता है, उसके साथ-साथ एक सत्य क्षण-प्रति-क्षण चल और व्यक्त हो रहा होता है, जो कालांतर आनंदित भी कर सकता है और क्षोभ भी दे सकता है।
हमारे देश में समय-समय पर बहुत से विचारक व धार्मिक ज्ञानी हुए हैं। उनमें से एक गुरु नानक देव जी भी हैं, जिन्होंने संसार के विचारों व उससे उपजे जीवन को अनुभव कर कहा,-“नानक दुखिया सब संसार।”
मेरी बुद्धि अब फिर बिफर उठी, ओह! इन्होंने यह क्यों नहीं कहा,-“नानक सुखिया सब संसार।”
कहने का आशय यह है कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति या प्राणी अपने समय के परिवेश को अनदेखा कर कुछ नहीं रच और कह सकता है। अपने समय के सच को ही तो लेखक अपने विचारों के प्रवाह के द्वारा शब्दों में आश्रय देता है। ऐसी स्थिति में लेखक सत्य ही लिखता है, शिव ही का ज्ञान देता है और सुंदर अभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है। जो उक्त २ महान विद्वानों के वक्तव्यों से भी स्पष्ट होती है।
कहने को दुनियाभर के धर्म अपने ध्रुवीकरण पर ही सदैव निस्सरित होते हैं। सद्भावना व मानवतावादी अनन्त आनन्दायी विचारों को एक परिसीमाओं में बांधते हैं। किसी एक मानव को दूसरे मानव से मिलने ही नहीं देते। धर्मों की यह कैसी परिभाषा है मानव के प्रति मानवतावादी होने की ? सभी धर्मों ने अपने-अपने धर्म की लक्ष्मण रेखाएं खींच रखी हैं, लेकिन जब लेखक इसी लक्ष्मण रेखा को पार करता है तो उसका सीता-हरण हो जाता है यानि कि उसे अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए सामाजिक वातावरण बनाए रखने के उद्देश्य से रोका जाता है।
स्वतंत्र विचार शक्ति के दौरान नदी व समुद्र में उठने वाली उफान लाती विचार लहरों को रोकना कितना हितकर या अहितकर है ? यह साहित्य का एक विचारणीय विषय है।
सद्भावना व मानवतावादी दृष्टिकोण इतना समाज व राजनीति में सार्थक भूमिका निर्वाह करता है तो संसार भर के इतिहास में हुए अनगिनत युद्ध हमें क्यों पढ़ने पढ़ते ? स्पष्ट है उक्त व्यक्तव्य मात्र सामाजिक मर्म को दबाने के लिए ही सफल प्रयोग मात्र हैं। समस्याओं व मुद्दों के स्थाई समाधान करने के बजाए दबाने का अचूक बाण है। सत्य को सत्य की तरह समझने व समझाने का कार्य लेखक के सिवाय किसी ओर का कर्म नहीं हो सकता। बिल्कुल वैसे, जैसे कृष्ण का महाभारत के दौरान दिया गया अर्जुन संदेश कि-प्रत्येक प्राणी को
अपने-अपने कर्म का फल व निवारण स्वयं ही करना होता है। और चाहते या न चाहते हुए संभावित परिणाम प्राप्त करना भी।”
अत: लेखक को अपने सत्य कर्म से कदापि संकोच नहीं करना चाहिए। यदि प्राचीन लेखकों ने अपना यह कर्म सही व सत्यनिष्ठा से न निभाया होता तो हम अनेकों सार्थक तथ्यों के सत्य से वंचित रह जाते। तात्पर्य यही है कि लेखक-कर्म को सत्यनिष्ठा से भरपूर लेखन करना चाहिए। सामाजिक, राजनीतिक व धार्मिक विषयों का विश्लेषण व विवेचन स्थायी ज्ञान से परिपूर्ण करना चाहिए।