कुल पृष्ठ दर्शन : 322

You are currently viewing सांसारिक विमुखता द्वारा आत्म स्वरूप की पुनः प्राप्ति

सांसारिक विमुखता द्वारा आत्म स्वरूप की पुनः प्राप्ति

मुकेश कुमार मोदी
बीकानेर (राजस्थान)
****************************************

गर्भ में पोषित हो रही देह में विराजमान होकर शिशु के रूप में जन्म लेने के पश्चात् आत्मा का संसार की चीजों से, व्यक्तियों से, व्यवस्थाओं से दिन-प्रतिदिन परिचय होता ही रहता है। इन्द्रियों के माध्यम से आत्मा रोज विभिन्न प्रकार के अनुभव अपने अन्तःकरण में संजोती है, किन्तु प्रकृतिजन्य शरीर से सम्मिश्रित होकर स्वयं का अस्तित्व ही खो देती है। आत्मा के निजी गुण, शक्तियाँ, क्षमताएं और विशेषताएं लुप्त-सी हो जाती हैं। यही अवस्था उसे बाहरी दुनिया की भूल- भुलैया उसे अनेक विपदाओं के जंजाल में लपेट लेती है जिससे निकलने के लिए मनुष्यात्मा छटपटाती अवश्य है किन्तु, क्षणिक और विनाशी सांसारिक सुखों का आकर्षण व रसास्वादन उसे अपने पाश में जकड़ता ही जाता है।
आत्मा को यह आभास ही नहीं कि वह अराजकता फैलाने वाले ५ विकारों रूपी दुष्ट शत्रुओं से घिरी हुई है। बाहरी दुनिया के संग घुलने-मिलने से ही विकारों की विषैली चाशनी आत्मा पर लिपट जाती है। अपने ही गुणों और शक्तियों की क्षति होती देखकर भी आत्मा असहाय-सी हो जाती है। आत्मा तो रोज विकारों के थपेड़े खा खाकर, लहुलुहान होकर भी उन्हीं के अंग-संग रहने को अपना सौभाग्य समझने लगी है। खतरे में फंसे होने के आभास से परे आत्मा कैसे स्वयं को विकारों के जंजाल से छुड़ा पाएगी ? उसने तो स्वयं को देखना, स्वयं से मिलना, स्वयं से बात करना, स्वयं को सम्भालना ही छोड़ दिया है।
यदि कोई देश शत्रुओं से घिर जाए तो वहां सरकार जनता को अपने घरों से बाहर ना निकलने की हिदायत देती है। यदि फिर भी कोई निकलता है तो उसका जीवन संकट में पड़ने की विकट स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यही स्थिति समाज में रहने वाले लगभग हर व्यक्ति की हो चुकी है ।
यदि आत्मा के ऊपर विकारों का संकट गहराया हुआ हो तो उसे किस घर में छिपना चाहिए। यहां कछुए की मिसाल देना उचित होगा। खतरे का आभास होते ही कछुआ अपनी कर्मेंद्रियों को भीतर की ओर मोड़ लेता है। यही आदत मनुष्यात्मा को अपना लेना चाहिए।
जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए मनुष्यात्मा को संसारिक व्यवस्थाओं के सम्पर्क में आना ही पड़ता है। यहीं से उसे अनेक प्रकार के संकट घेरना प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि स्वयं से परिचित हुए बिना ही आत्मा संसार रूपी रण में उतर पड़ती है, इसलिए खतरों से घिरने का उसे आभास ही नहीं हो पाता। जब तक आत्मा स्वयं से परिचित नहीं होगी, स्वयं से मित्रता नहीं करेगी, स्वयं से बात नहीं करेगी, तब तक उसके चारों ओर विकारों द्वारा फैलाया हुआ संकटों का जाल और भी शक्तिशाली होता जाएगा।
इसलिए दिनभर में समय निकालकर आत्म निरीक्षण करते हुए सर्वगुणों से सुसज्जित अपने निज स्वरूप को तलाशने का प्रयास करें, उसके सानिध्य में जाने का प्रयास करें। आत्मा की स्वयं से मुलाकात जितनी गहरी होती जाएगी, उतना ही हम आत्मशुद्धि की ओर अग्रसर होकर परमात्मा के सानिध्य में पहुंचते जाएंगे जिससे जागृत होने वाली आध्यात्मिक ऊर्जा हमारे भीतर बैठे मनोदोषों को मिटाकर कुसंस्कारों को नष्ट करने के विजय अभियान पर चल पड़ेगी। तत्पश्चात् हम हर विकट परिस्थिति से उत्पन्न होने वाले अशान्तिकारक व नकारात्मक प्रभावों से स्वयं को बचा पाने के सफल हो सकेंगे।
इसलिए प्रतिदिन अर्न्तमुखी होकर स्वयं से प्रश्न करें कि मेरी कौन-सी आदतें मेरे जीवन पर, मेरे व्यक्तित्व पर, मेरे व्यवहार पर नकारात्मक प्रभाव डालती है और मुझे इसे बदलने के लिए क्या प्रयास करने चाहिए।

कोई विचार करने या कोई कार्य करने से पूर्व मात्र यह जांच करें कि क्या मेरा यह विचार अथवा कार्य ईश्वर को पसन्द है या नहीं। उसी अनुरूप निर्णय लेकर आगे बढ़ें।
यही जांच वैचारिक धरातल पर सकारात्मक उर्जा का बीजारोपण करेगी जो कालान्तर में अनगिनत आध्यात्मिक गुणों और शक्तियों से सम्पन्न बनाएगी। जो ईश्वरीय प्रेम की पात्रता का मुख्य आधार है। आपका सम्पूर्ण जीवन संदर्शिका के रूप में सबको सकारात्मकता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देगा।

परिचय – मुकेश कुमार मोदी का स्थाई निवास बीकानेर में है। १६ दिसम्बर १९७३ को संगरिया (राजस्थान)में जन्मे मुकेश मोदी को हिंदी व अंग्रेजी भाषा क़ा ज्ञान है। कला के राज्य राजस्थान के वासी श्री मोदी की पूर्ण शिक्षा स्नातक(वाणिज्य) है। आप सत्र न्यायालय में प्रस्तुतकार के पद पर कार्यरत होकर कविता लेखन से अपनी भावना अभिव्यक्त करते हैं। इनकी विशेष उपलब्धि-शब्दांचल राजस्थान की आभासी प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक प्राप्त करना है। वेबसाइट पर १०० से अधिक कविताएं प्रदर्शित होने पर सम्मान भी मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज में नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना है। ब्रह्मकुमारीज से प्राप्त आध्यात्मिक शिक्षा आपकी प्रेरणा है, जबकि विशेषज्ञता-हिन्दी टंकण करना है। आपका जीवन लक्ष्य-समाज में आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की जागृति लाना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-‘हिन्दी एक अतुलनीय, सुमधुर, भावपूर्ण, आध्यात्मिक, सरल और सभ्य भाषा है।’

Leave a Reply